कविता-विदाई बेटी की !!
पता नहीं क्यों ऐसा होता है,
मन सुध-बुध सब खो देता है.
कोई धर्म नहीं कोई शर्म नहीं,
मान नहीं अपमान नहीं।।
बस बेचैनी हो जाती है,
जब कोई गुडिया जाती है।
चलता पथिक भी रो देता है,
अपनी सुध-बुध खो देता है।।
पाषाण दिलो की हालत भी,
मोम जैसी हो जाती है।
बस आँखें आंसू छलकती है,
जब कोई गुडिया जाती है।।
तन के कपडे का होंश नहीं,
आँखों के अश्रु रुकते ही नहीं।
माँ की छाती फट जाती है,
जब कोई बेटी जाती है।।
,वो वीर पुरुष, वो घुड़सवार,
मुछो वाले नाइ कहार।
घर के हो या पूरी बरात,
चाहे हो कोई नाराज।
सबके नैन छलकाती है,
जब कोई गुडिया जाती है।।
चंचल शोख सुबह शाम,
जो माँ भाई से लडती थी।
नित नए जोश फुदकती चिड़िया सी,
चमका करती थी बिंदिया सी।
दुबली पतली हो जाती है,
जब कोई गुडिया जाती है।।
— हृदय जौनपुरी