एक कविता ।
स्मृति के पन्नो पर फैला
तंद्राओं का घेरा
कुछ टूट गया
कुछ छूट गया
ये अद्भुत मौन बसेरा ।।
आशाओं के जुगनू जलते
कहीं तृष्णा का फेरा
ये काल चक्र
कितना वक्र
किसको नहीं आ घेरा ।।
हैं विस्मृत से सभी यहां
कितना जाने है सवेरा
रुक जरा पथिक
सांस तो ले
क्या तेरा और मेरा ।।
है गगन कहीं विशाल घना
तो कहीं रज रज डेरा
न तू खुश है
न वो खुश है
है कर्मगति का फेरा।।
बना बना के मिटा रहा
ऐ कुम्हार कौन घर तेरा
ये चाक तेरी
मिट्टी तेरी
क्या रिश्ता तेरा मेरा ।।