एक व्यंग्य : सर्कस
माया मुई न मन मुआ मर मर गया शरीर आसा त्रिसना न मरी कह गए दास कबीर । ये आसा त्रिसना जो न कराये कम है इंसान हारती हुई बाजी को भी आखिर तक जीत में बदलने में लगा रहता है फिर ये बात अगर लोकतंत्र में कुर्सी की हो तो आदमी डूबते हुए में भी तिनके का सहारा लेने से नहीं चूकता और आख़िरकार डूब ही जाता है गठजोड़ ,जोड़ तोड़ ये कुर्सी की चाह क्या कुछ नहीं कराती लेकिन जब बड़े बड़े राजतन्त्र तहस नहस हो गए तो प्रजातंत्र में भी कुर्सी को सिंघासन मान लेने की समझ पर वक़्त की कुल्हाड़ी चल ही जाती है और इंसान ठगा सा महसूस करता है एकाएक उसे जनतंत्र में जन की ताकत का अहसास होता है एकाएक उसकी नींद टूटती है और तब वो समझ पाता है कि कहाँ चूक हुई और दोबारा वो गलती न करने की जिम्मेदारी तब ही लेता है इस से पहले हर कुर्सीवाज खुद को राजा समझता है और जनतंत्र को राजतन्त्र , राजतन्त्र में सलाम करना अनिवार्य था लेकिन लोकतान्त्रिक राजतन्त्र में पैर छूना ! बड़े बड़े काबिल अफसर इन चुने हुए राजाओं के पैरों में जब तक लोट न लगाएं तब तक सत्ता का सुख कहाँ ! सब आसा त्रिसना का ही खेल है ।
हम भारतवासी दुनिया का नक्शा बदलने की ताकत रखते हैं लेकिन हमारी उदारता है कि हम किसी भी चीज़ में ज्यादा नहीं घुसते ।दूसरों को पूरा मौका देते हैं उनकी मनमर्जी करने का । जब तक बात हमारे नाक तक नहीं आ जाती तब तक हम कान पर जूं भी नहीं रेंगने देते। हमारी इसी सोच के चलते। लोकतंत्र से लेकर संविधान तक आरक्षण से लेकर मौलिक अधिकारों तक के इस्तेमाल तक जो लिख गया वो लिख गया हमे ज्यादा मतलब नहीं रखते किसी भी चीज से जहां तक बात चुनाव या लोकतान्त्रिक व्यवस्था की है तो कौन नहीं जानता की लोकतंत्र में बोट देना अनिवार्य है और बोट कौन सी बड़ी चीज है अगर कोई पैर छूकर एक मिठाई का डिब्बा भी दे जाये तो हम भारत वासियों का ये नैतिक कर्तव्य बन जाता है कि हम बोट उसी को दें,भई व्यवहार की बात है व्यवहार नहीं खराब होना चाहिये सरकार का क्या ये तो बनती बिगड़ती रहती हैं हर पांच साल में मुनादी के साथ सर्कस का आयोजन तो होना ही होना है तो फिर क्यों इतनी चिंता करना !
लोकतान्त्रिक सर्कस का पूरा खेल खेलने वाले की सूझबूझ पर निर्भर होता है खेलनेवाला अगर ये नहीं जानता की कब जनता ताली बजाएगी और कब नहीं कब कौन सा करतब खेलने वाले को सुखियों में लायेगा भी या नहीं तो खिलाडी सच में अनाड़ी साबित होता है और जनता कभी कभीसर्कस के तंबू तक उखाड़ फेकती है क्योंकि सर्कस में जोकर का काम कुछ ही देर का होता है थोड़ी देर हसाया गुदगुदाया और जय राम जी की लेकिन अगर हर समय जनता के सामने अगर जोकर ही आते रहे तो खेल तो खराब होना ही है ।
लोग अमरीका जैसे देशों में अलिखित संविधान में भी परिवर्तन नहीं कर पाते मगर हम तो अपने लिखित संबिधान तक को अपनी दम पर बदलने की ताकत रखते हैं कुर्सी को कैसे सिंघासन में बदला जाता है कैसे कैसे कहाँ कहाँ अपने निजाम नियुक्त किये जाते हैं ये भारतीय जयचंदों से बेहतर दुनिया में कोई नहीं जानता। लेकिन बहुत पहले ही रहीम दास जी जो कह गए वो आज के सन्दर्भ में ही कहा लगता है और आज भी बिल्कुल सही है–
चाह गयी चिंता मिटी ,मनुआ बेपरवाह
जिनको कछु नहीं चाहिए वे साहन के साह ।
— अंशु प्रधान