कहानी: बंटवारा
चिंकी आज खुश नहीं है जरा भी नहीं ..वरना सुबह के आठ बजे तक वह बिस्तर पर कभी नहीं टिकती थी वह बीमार भी नहीं है और उसे नींद भी नहीं आ रही| वह तो रोज दादी माँ के साथ ही उठ जाया करती है उनके साथ सुबह सुबह उठकर कुलदेवता को हाथ जोड़कर मन ही मन नमस्कार करने के बाद ही धरती पर कदम रखती है.. फिर दादी संग रसोईघर में जाकर चूल्हे में राख की परतों के बीच रात के दबाए उपले में चिमटे से आग ढू़ँढ़ती दादी का चूल्हा सुलगाने में मदद करती है|
जब तक दादी चूल्हे की आंच तेज करती चिंकी खजूर का झाड़ू लेकर रसोईघर का फर्श साफ कर देती| ये रोज की बात है| बड़ी सुरमी है चिंकी…दादी मां की लाडली…| दादी माँ तो कहती ही रहती है कि जाकर सो जा चिंकी.. मगर चिंकी को सुबह सुबह उठना भाता है..पड़ोसी के मुर्गे की बांग से पहले जगना.. दादी माँ के साथ बिस्तर त्यागना…सूरज को उदय होते देखना… चिंकी सुबह देर तक सो ही नहीं सकती|
मगर आज चिंकी नहीं जगी.. वह चादर हटाकर कोरअंखियों से रोशन दान की तरफ देख रही है कि कब जैसे उजाला हो? कब धूप निकले? कभी दरवाजे की ओर नज़र मारती है कि कौन उसको जगाने आएगा? दादी माँ तो यही सोच कर चिंकी को जगाने नहीं गई कि आज रविवार का अवकाश है और दूसरा उसकी वार्षिक परीक्षाएं भी दूर है ..वैसे चिंकी की पढ़ाई में रुचि बहुत है ..पिछली जमात में भी उसने प्रथम स्थान पाया था..
दादी माँ पूरे आँगन की सफाई व मंदिर में पूजा कर के घर आ चुकी थी. आरती की थाली पूजा घर में रखने के बाद घर के सभी सदस्यों को प्रसाद के रूप में शक्करपारे बांट रही थी..
‘चिंकी…ओ चिंकी..जगी नहीं तू अभी तक मेरी रानी’ दादी ने कमरे में आते हुए कहा|
दादी की आवाज सुनकर चिंकी बिस्तर में दुबककर सोने का नाटक करने लगी मानो जैसे वो गहरी नींद में हो| दादी माँ ने जब धीरे से चादर हटा कर ‘पकड़ लिया’ कहा तो चिंकी की हंसी छूट गई.. दादी की लाडली चिंकी खिलखिलाती हुई बिस्तर से उठ कर दादी से लिपट गई.. दादी ने प्यार से आलिंगन करके चिंकी के गालों को चूम लिया..
कुछ ही देर में चिंकी का मुस्कुराता हुआ चेहरा एकदम भावशून्य हो गया ..हँसी कहीं गायब हो गई मानो उसे किसी घोर समस्या ने घेर लिया हो.. ‘क्या हुआ बे तुझे चिंकी ?क्यों मुंह फुला लिया ?तेरा लट्टू गुम हो गया है क्या? चिंकी चुप रही| ‘अच्छा!शक्करपारे नहीं दिए मैंने ,तभी नाराज़ है दादी से’ चिंकी ने न में सिर हिलाया|
‘फिर हुआ क्या है तुझे चिंकी? बता तो मुझे’ दादी मां ने चिंकी के मन को टटोलना चाहा|
‘दादी !क्या हम सच में जुदा हो रहे हैं ?क्या अब सभी एक साथ इस घर में नहीं रहेंगे? इतना बड़ा घर तो है दादा ने बनाया ..चार बड़े-बड़े ओबरे हैं, सामान रखने को चांगड है, इनके अलावा पक्का मकान भी तो है | पुराने वाले घर में जिस में ताला लगा है कि अगर सफाई की जाए तो वह भी रहने लायक हो जाएगा..’
चिंकी की बात सुनकर दादी स्तब्ध रह गई| मासूम मन में इतने गहरे विचार उमड़ रहे होंगे दादी ने कभी सोचा ना था| ‘अरे नहीं बेटा ! ऐसा नहीं है तू क्यों चिंता करती है ?’
‘नहीं दादी! मैंने रात को चाची -काकी को झगड़ते हुए सुना था| चाची कह रही थी कि बहुत हुआ अब.. कमाए हम और उड़ाए पूरा परिवार…तभी काकी बोली कि हम भी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रहते…पूरे 40 बीघा ज़मीन की खेतीबाड़ी अपने ही सर तो है.. घास पत्ती लाने में व डंगरों की सेवा में दिन कब निकल जाता है पता ही नहीं चलता…और ऊपर से ताने सुनने को अलग…’
चिंकी रात की घटना के बारे में दादी को बता रही थी | ऐसा नहीं था कि दादी को इस बारे में पता नहीं था वह तो खुद उसी कमरे में थी जब उसकी बहुऐं उसी के सामने लोक-लाज त्यागकर जंगली बिल्लियों की तरह लड़ने लगी थी…|
तीन बहुओं की सास थी दादी| पूरे गांव-परगने में उसके जैसी नार कोई नहीं थी | ऊंचे कद की , गोरी-चिट्टी रही थी कभी.. काम में ऐसी चंट कि पूरे गांव-बेड़ में सभी जनानें उसी की मिसाल देती| खाना बनाना क्या..कढ़ाई सिलाई क्या..सब में तेज…जब जवान थी तो अकेली औरत होते हुए भी तीन चार भैंसे पाल रखी थी| दूध-दही की नदियां बहती थी घर में |
सबसे छोटा लड़का शहर में किसी कंपनी में कर्मचारी है| ज्यादा तनख्वाह तो नहीं मिलती पर शहर का मोह उसे गांव से दूर ले गया है | दादी ने तो कई दफा मना भी किया कि घर पर ही कमा ले..इतनी जमीन जायदाद है.. मगर वह नहीं सुनता..दूजा उसकी लाड़ी ने उसके मन में न जाने क्या डाल रखा है कि उखड़ा-उखड़ा सा रहने लगा है दादी के साथ| मियां बीबी शहर में रहने की इच्छा पाले हुए हैं| दो कमरे का वह किराए का मकान उन दोनों को अपने विशाल पुश्तैनी मकान से कहीं बड़ा लगता है | दादी कभी-कभी जब इनके बारे में सोचती हैं तो बहुत रोती है मगर सब से छुपकर | चिंकी ने एक दफ़ा दादी को चश्मा हटाकर आंसुओं को पोंछते हुए देख लिया था| चिंकी ने पूछा भी था मगर दादी ने कहा कि आंख में कुछ गिर गया है|
सबसे बड़ा लड़का खूब कमाता है उसकी घरवाली भी सुरमी है | बच्चे भी वैसे ही हैं काम में तेज़ | पर अब उनकी नज़र झील के पास वाली उपजाऊ ज़मीन पर है ..दोनों चाहते हैं कि जैसे भी हो वह ज़मीन उनके हाथ लग जाए| वहीं पर ही घर-बार भी जोड़ लेंगे | गांव से थोड़ा दूर हटकर | बड़ी बहू अपने घरवाले को दादी से इसी बारे में बात करने के लिए कितनी ही दफा बोल चुकी है यह बात भी दादी को पता है और उसे कोई ऐतराज भी नहीं | किसी ज़माने में चिंकी के दादा ने पूरे 25 हजार में खरीदी थी वह झील के पास वाली ज़मीन जो आज लाखों में है |मगर दादी को कोई लालच नहीं है वह तो यही चाहती है कि सब मिलजुल कर रहे जहां तक हो सके | अगर जुदा होने की नौबत आ भी गई तो सबको संपत्ति का बराबर बराबर हिस्सा मिले|
दादी मंझले बेटे-बहू के साथ रहती हैं | चिंकी भी उन्ही की औलाद है | दादी ने कभी भी किसी बेटे के साथ असमान व्यवहार नहीं किया| कभी किसी के बच्चे को नहीं डांटा| वह तो सबके लिए विनम्रहृदयी बनी रही है | आज भी वैसी ही है | दादी जरा भी नहीं बदली मगर बाकी सदस्यों के बदलते रवैये ने उसे आहत जरूर किया है | चिंकी के दादा जी के साथ उनका बहुत अच्छा साथ रहा |
दादी ने चिंकी को गोद में भर लिया था उसके बालों को सहलाते सहलाते ब्याह से पहले के जीवन , इस घर की बहू बनने से अब तक की तमाम यादों में खो गई थी दादी|
उधर चिंकी के मन में भी परिवार के टूटने पर पैदा होने वाले दृश्य उड़ने लगे थे| मासूम सा मन उस वेदना को महसूस कर रहा था जिसे अगर बड़े कुटुंबी महसूसते तो अलग होने का ख्याल ही छोड़ देते |
वह याद करती है कि पिछले साल कितनी मस्ती की थी अपने दूसरे भाई बहनों के साथ पास के गाँव में लगने वाले मेले में.. काका अपने बच्चों के साथ चिंकी को भी ले गए थे | कितना सुंदर मेला सजा था.. बड़ा सा पांडाल लगा था ,झूले पड़े थे, सर्कस चल रही थी, भालू वाला करतब दिखा रहा था| उन सब ने लाल-लाल कुल्फी का मजा लिया था |हरिया की दुकान से जलेबी, मस्तू की दुकान के कुलचे.. वाह.. कितना मजा आया था | अपने अपने देवलुओं संग नाचते गाते आ रहे देवतागण, उनके भव्य व मनोहारी रथ| साथ चलते बजंतरियों की टोलियाँ…किसी के पास तूरी,छैणी, तो कोई ढ़ोल-डफाल वाला | किसी के कंधे पर नाहरसिंगा | उनके वाद्ययंत्रों की मधुर ध्वनियों से पूरा परिवेश भक्ति में हो गया था | धूप-धंग्यारे की खुशबू मानो जैसे उसके नथूनों को आज भी छू रही हो| अहा!! कितना आनंद आया था|
सबसे छोटी होने के कारण काका ने चिंकी को अपने कंधों पर उठा रखा था |उसे तो यूं लग रहा था जैसे वह किसी ऊंचे सिंहासन पर बैठी हो , कोई राजकुमारी हो और बाकी सब उसके आगे छोटे हो, बौने हो, उसकी प्रजा हो |
सच में बहुत मजा आया था और जब गर्मियों की छुट्टियों में चाचू-चाची उसे शहर ले गए थे तब भी तो कितना अच्छा लगा था | चाचू के बच्चों संग रविवार को सिनेमा देखने गए थे | उसके बाद चाट-पकौड़ी खाई थी| चाची ने एक प्यारी सी गुड़िया खरीद कर दी थी और चाचू ने नई ब्रांडेड फ्रॉक| फिर घर आकर सभी बच्चों ने कैरम बोर्ड खेल कर कितना मजा लूटा था | सच में…
उसे तो आज भी छुट्टियों का इंतजार रहता है जब चाचू उसे दोबारा शहर ले जाएंगे | उन्होंने उसे चिड़ियाघर दिखाने का वायदा जो कर रखा है |
उसे याद है जब धान की रोपाई शुरु हुई थी तो परिवार के सभी सदस्यों ने मिलकर उन पुश्तैनी क्यारों में मेहनत करके धान रोपे थे | काका ने सुबह-सुबह क्यार को पानी लगा दिया था उसके बाद उसके पापा बैल की जोड़ी लेकर क्यार पहुंच गए थे| हल की फाल के पीछे-पीछे बहकर पानी मिट्टी को हल्की दलदल में परिवर्तित कर रहा था | काकी चाची और उसकी मां ने खुशी-खुशी धान की रोपाई शुरु कर दी थी | बच्चा पार्टी उन सबके लिए दादी मां द्वारा बनाया भोजन क्यार में ही ले गए थे | जिसे सब ने प्यार से मिलजुल कर खाकर बाकी का काम निपटाया था | कितना अच्छा लगा था | सभी बच्चे कितने खुश थे | अपनी ज़मीन, अपने लोग ,अपनी खुशियाँ जिनका कोई मोल ही नहीं.. चिंकी को सब याद है| एकदम साफ.. निर्मल जल की तरह..|
‘जमुना.. ओ जमुना!’ तभी आँगन से किसी ने आवाज दी| दादी के शरीर में हरकत हुई| चिंकी को गोद से उतारकर बाहर जाकर देखा तो प्रधान और कुछ और लोग आंगन में खड़े थे| दादी ने सब को बैठने के लिए खजूर के बिन्ने दिए, प्रधान को कुर्सी लगा दी | वे लोग परिवार के बंटवारे को लेकर जमीन ,धनराशि ,बर्तन कपड़े बांटने आए थे | उन्हें देख परिवार के पुरुष सदस्य भी अाँगन में आ गए| चिंकी की चाची अपने कमरे के दरवाजे की ओट में खड़ी यह सब देख कर खुश होए जा रही थी मानो उसे किसी इनाम की घोषणा की जाने वाली हो |काकी खिड़की के टूटे कांच से यह सुनने को बेताब थी कि क्या उसे झील के पास वाली उस उपजाऊ ज़मीन का ज्यादातर हिस्सा मिलेगा ! चिंकी की माँ सबके लिए चाय बनाने लगी थी | दादी बीहू पर बैठ गई थी |
प्रधान के एक इशारे पर घर के पुरूष सदस्य कपड़े व बर्तनों को आंगन में रखने लगे थे ताकि सबके सामने सबको बराबर बराबर हिस्सा आए | पड़ोसी-शरीक दीवारों की आड़ में तांक-झांक कर खुश हो रहे थे | दादी का हृदय किसी अंगारे की तरह भभक रहा था| दशकों से संजोया पुश्तैनी घर, जगह-ज़मीन सभी उसकी आँखों के सामने बंट रहे थे मानो उसके जिगर को कोई गरम छुरे से काट रहा हो | वह अपने चादरू से आंसुओं को सबसे छुपाकर पोंछ रही थी |
चिंकी अभी भी कमरे में ही थी या यूं कहें कि बाहर आने का साहस नहीं कर पा रही थी| उसे कुछ ज्यादा समझ भी नहीं आ रहा था मगर वह उस चुप्पी को महसूस कर रही थी| कब परिवार के टूटने की घोषणा हो इसी बात से वह डरी-सहमी सी दरवाजे के छेद से बाहर के दृश्य को देख रही थी ….
— मनोज कुमार ‘शिव’
क्षेत्रीय शब्दों के अर्थ:-
(क) चांगड़:- स्लेट या टिन वाले घर की छत जिसमें पुराना सामान रखा जाता है|
(ख)डंगर:- पशु
(ग) क्यार:- धान के खेत
(घ) बीहू:- आँगन में घर की दीवार के साथ बनाई छोटी दीवारनुमा आकृति जिस पर बैठकर दीवार से पीठ सटाई जा सके|