मनमीत
थे हम तुम तब बहुत अपरिचित ,
पर चिर परिचित से लगते थे ।
इक दूजे के सुख – दुख सुनने को,
हर क्षण उत्सुक हो जगते थे ।।
तुमने ही चाहा था जुड़ना ,
जन्मों का साथ बताते थे ।
रीते – रीते अन्तर्मन में ,
तब नेह – सुधा बरसाते थे ।।
साक्षी है यह समय हमारे ,
पुष्पित होते मन – उपवन का।
जो प्रणय – बीज बोया विधि ने,
अल्प अवधि में चिर नूतन सा ।।
अमर रहेगा प्रेम हमारा ,
हो मूक ‘अधर’ यह कहते थे ।
प्राण सुप्रिये ! प्राण तुम्ही हो,
कह नीर नयन से बहते थे ।।
किन्तु कहीं ओझल बैठी थी,
दुर्दिन सी रजनी मुस्काती ।
उदित हुयी सन्देह गहन ले,
भोले प्रिय – मन को भरमाती ।।
खुशहाल अवधि क्यूँ बीती है ,
हिय – नेह – नदी क्यूँ रीती है ।
सन्देह – दृष्टि आरोपों से ,
अब प्राणप्रिया हत जीती है ।।
विस्मृत करना चाहा कितना ,
पर बिना श्वांस जीवन कैसा ?
जब तक हो तुम मुझमें तब तक,
कुछ होता है स्पन्दन जैसा ।।
कौन किसी को जीत सका है,
हिय – प्रान्त जीतकर हारी हूँ ।
बाट जोहती अपलक निशदिन,
त्यज सब कुछ प्रिय पर वारी हूँ ।।
क्या दग्ध न मन होता होगा ,
प्राण – सखा भी रोता होगा ।
विधिवश भ्रमित हुयी है मति यूँ,
व्यथा – बोझ ही ढोता होगा ।।
हे ईश ! सदा छाया करना ,
मन जीवन का आराध्य वही ।
कष्ट – कंट उसके हर लेना ,
मैं साधक हूँ तो साध्य वही ।।
रोम – रोम अभिभूत आज भी ,
तुम जैसे भी हो अच्छे हो ।
नयी दिशा जीने की दे दी ,
मनमीत अरे ! तुम सच्चे हो ।।
— शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’