लघुकथा

मोहताजी

मोहनलाल अभी चंद रोज पहले ही सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हुए थे । शहर  के पॉश इलाके में उनका एक आलिशान बंगला था । इसके अलावा चौराहे पर उनकी दो दुकानें भी थीं जिन्हें उन्होंने किराये पर चढ़ा दिया था । पेंशन और दुकान के किरायों को मिलाकर एक अच्छी आमदनी वह घर बैठे भी कर रहे थे ।
उनके दो बेटे थे । बड़ा बेटा रमेश वकील था जबकि छोटा सुरेश अब दांत का डॉक्टर बन गया था और दवाखाना खोलने के लिए उपयुक्त दुकान की खोज में था ।
एक दिन सुरेश ने प्रसन्न मुद्रा में बैठे मोहनलाल से पुछ ही लिया ” पिताजी ! वह चौराहे वाली अपनी दुकान में यदि मैं दवाखाना खोल लेता तो बहुत जल्दी कामयाब हो जाता । ”
मोहनलाल ने अपनी गंभीर मुद्रा में उसे घूरते हुए कहा ” बेटा ! अगर तुम्हारे अन्दर काबिलियत है तो कामयाबी जरुर मिलेगी । उसके लिए किसी अच्छी जगह की मुहताजी क्यों ? ”
” ,पिताजी ! लेकिन वह तो अपनी ही दुकान है न ? फिर किराये की दुकान में दवाखाना खोलुं ? लोग क्या कहेंगे ? ” सुरेश ने मोहनलाल को समझाना चाहा था ।
मोहनलाल बोले ” गलतफहमी में मत रहो बेटा ! जब तक मैं जिन्दा हूँ वह दुकान यह घर सब कुछ मेरा है । बेशक मेरे बाद यह सब कुछ तुम दोनों भाई का ही है लेकिन मैं जीते जी तुम लोगों का मुहताज नहीं बनना चाहता । तुम कोई और इंतजाम कर लो बेटा ! “

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।