कविता

बातूनी कछुवा

  • एक जंगल के एक ताल में
    कछुआ एक रहा करता था
    कुछ बगुले थे मित्र बने वह
    मन की बात किया करता था

पड़ा भयंकर सूखा एक बार
ताल तलैये सूख गए
ताल की मछली मरीं तड़प
जीवों को असीमित दुःख भये

बगुलों ने भरकर उड़ान
एक सुन्दर ताल था ढूंढ़ लिया
कछुवे ने अब अंत जानकर
अपनी आँखें मूंद लिया

सुनकर बगुलों की पुकार
कछुवे ने आँखें खोली है
‘ अलविदा ‘ सुन कर बगुलों की
कछुवे की दुनिया डोली है

   ”  कहाँ चले तुम मुझे छोड़कर
यह तो मुझको बतलाओ
अगर कहीं नजदीक ताल है
संग मुझे भी ले जाओ “

” सौ कोस की दुरी पर
एक सुन्दर ताल मिला हमको
जी तो करता तुम साथ चलो
संग ले कैसे जाएँ तुमको ? ”

    एक अक्लमंद बगुले ने तब
एक युक्ति सुझाई है सबको
जोखिम तो है इसमें काफी
लेकिन अब याद करो रब को

  मजबूत काठ का एक टुकड़ा
बगुलों ने तब था खोज लिया
कछुवे ने पकड़ा बिच काठ
बगुलों ने सिरा चोंच लिया

  एक बात चेतायी बगुलों ने
कछुवे से कहा  “तुम ध्यान धरो
चाहे कोई कुछ भी बोले
खामोश रहो मुंह बंद करो “

   ले उड़े गगन में कछुवे को
कछुवा मन में हर्षाया था
लकड़ी के दोनों सिरों को
बगुलों ने मुंह में दबाया था

एक गाँव के ऊपर से जाते
बगुलों को देखा लोगों ने
लटके देखा कछुवा सबने
फिर शोर मचाया लोगों ने

  तारीफ भरी बातें सुन कर
कछुवा सुध बुध सब भूल गया
कुछ कहने की खातिर उसका
अनजाने में मुंह खुल गया

फिर जो भी हुआ वो ना होता
कछुवे ने जो ध्यान रखा होता
‘ तारीफ सुनो पर ना फूलो ‘
गुरुओं का कहा जो सुना होता

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।