संवेदना के स्वर
जाने कैसी फितरत है
खुद से लड़ने की जुगत है
है परेशान सी है
जिन्दगी की चाह भी
खत्म है
संवेदनाओं के अहसास भी
झूठे पडे़ अपने भी
है स्व से मैं की
लडा़ई का मंजर
खो रहा
आंंगन का चैन
क्यों जगती है
आस हर दिन नई
गुंगे से है
सवेंदनाओं के स्वर
पर बंजर जमीं पर शायद
रिश्तों के फूल नहीं
खिला करते ।
अब अहसासों की
खाद भी फूलन से भरी है
दिन के सपनों सी है
ये खुर्द सी राहें।
अल्पना हर्ष