बेचैनियाँ
बेचैनियाँ वक्त के पीठ पर सवार
सनै सनै कब बैठ गई छाती पर
भान ही न हुआ
रिश्तों की कम होती गर्माहट के बीच
उन्हें बचाने की कोशिश जैसे
टकटकी लगाए रखना
दूध के भगोने पर
उसके फट जाने से पहले
कई बार सोचता हूँ
सबकी समस्याओं से जुझता जुझता
मैं खुद ही तो कहीं
समस्या नहीं हो गया हूँ
जैसे धागे को सुलझाते सुलझाते
उन्हें हम और भी उलझा देते है
फिर ढूंढते रह जाते है
पर मिलता ही नहीं
न ओर न छोर
जानता हूँ जीवन और झंझावात
परस्पर एक दूसरे के पूरक है
हारा भी नहीं हूँ मैं
और मेरा भीतर का दार्शनिक भी
मरा नही अब तक जिंदा है
जिसे मालुम है
नित्य दिन घटते सांसो का फलसफा
पर क्या करू मैं भी आदमी हूँ
टूट जाता हूँ कभी कभी
पर यकीन मानों
टूटकर भी , न अब बिखरा हूँ
न ही बिखरूँगा कभी
लेकिन कभी कभी बेचैनियों को
बनाए रखना भी तो जरूरी है
ताकि अपनों की तमाम मुश्किलों से
रू ब रू होता रहूँ
और मेरे अंदर बचाए रखूँ
मैं खुद को
एक एक कर सबसे निपट लेने के लिए
अमित कु.अम्बष्ट ” आमिली ”