कविता — बुतसाज
वो बुतसाज मेरे नज़दीक आया
मुझे लगा….
अब वो मुझ मे से
मुझे तराशेगा….
“आह! कितना सुंदर पत्थर !”
मेरे सीने पर
भारी बूट के साथ
अपना दाहिना पैर रखते
वो चहका
और सिगरेट सुलगा
बाएं पैर पर खड़ा
दाएं घुटने पर कोहनी टिका
लम्बे- लम्बे कश भरने लगा
धुएं के बादल
मेरे जिस्म से टकरा कर गुजरते
मेरे कानों मे
सरगोशी करने लगे….
“अब मंजिल दूर नहीं”
सिगरेट खत्म हुई
उसने बचे टुकड़े को
मेरे सीने पर
लापरवाही से फैंका
दाएं बूट की नोक के नीचे
बेरहमी से मसला
और……
चला गया!
लेकिन….
मैने वो टुकड़ा
बुझने नही दिया
अपने सीने मे संभाल लिया
ताउम्र सुलगने के लिए!
— रितु शर्मा