कविता

अर्जुन का गर्वहरण ( एक पद्य )

कथा सुनाता हूँ एक तुम भी सुन लो ध्यान लगाय
बाद महाभारत अर्जुन के मन में गर्व समाय

मारुती भी थे अति गर्वित बस राम नाम को लेकर
उनसे श्रेष्ठ नहीं हो सकता जग में कोई धनुर्धर

बात ह्रदय की कृष्ण समझ गए वो थे अंतर्यामी
सोच लिया पल में कान्हा ने दूर हो कैसे खामी

एक दिवस अर्जुन बोले सुन लो गिरिधर गोपाल
श्रेष्ठ धनुर्धर कौन है अब तक यह घडी और यह साल

सुनकर पार्थ की ये बातें कान्हा मन में मुस्काए हैं
तुमको मिलना होगा हनुमत से कान्हा ये समझाये हैं

कान्हा के संग पार्थ चले जा पहुंचे पर्वत चोटी पर
जहाँ ध्यानमग्न हनुमान विराजे थे पर्वत की चोटी पर

देख के सम्मुख मुरलीधर हनुमत ने उन्हें प्रणाम किया
क्या बात हुयी क्या खता हुयी गिरिधर क्यों यहाँ प्रयाण किया

तब कृष्ण पार्थ को इंगित कर हनुमत जी से यह बोले हैं
है कौन धनुर्धर बलशाली दुश्मन किस नाम से डोले हैं

सुनकर के मोहन की बातें अंजनीसुत मुस्काए हैं
गर्वित होकर हनुमत जी तब श्रीराम का नाम सुझाए हैं

अब पार्थ भला क्यूँ चुप रहते हनुमत को यह समझाया है
श्रीराम नहीं मैं श्रेष्ठ धनुर्धर पल में यह बतलाया है

पुल बनाया पत्थर का तब सेना सागर पार हुयी
फिर श्रेष्ठ धनुर्धर क्यूँ कहते लगता है तुमसे भूल हुयी

गर मैं होता उस वक्त पुल पत्थर का कभी न बनवाता
हूँ श्रेष्ठ धनुर्धर पल भर में तीरों से पुल बना जाता

गर्वित अर्जुन की सुन बातें हनुमत बोले सुनते जाओ
जो कहा उसे कर दिखलाओ निज ताकत पर ना इतराओ

तुम पुल बनाओ तीरों का उसको पल भर में तोडूंगा
गर तोड़ ना पाया पुल धनुर्धर उत्तम तुमको मानूंगा

सागर के तट पर अर्जुन ने तीरों का पुल बनाया है
लेकर विराट तब रूप कपि ने पुल को ही दहलाया है

जब तोड़ सके ना पुल कपि तब मुरलीधर से बोले हैं
है एक परीक्षा और अभी यह पार्थ नेत्र को खोले हैं

जा पहुंचे हनुमत संग सभी जहाँ सात ताड़ के पेड़ बड़े
एक बाण से भेदो इन सबको जल निकले जहाँ भी तीर अड़े

गांडीव हाथ ले अर्जुन ने तब तीर धनुष पे चढ़ाया है
कर भेदन सातों ताड़ का शर धरती में जा के समाया है

कुछ तो गड़बड़ है नाथ वरन ऐसा कैसे हो सकता है
मेरे राम जगत के दाता हैं उन सा कोई हो सकता है ?

अचरज में छोड़ के हनुमत को अर्जुन अब सागर तीर गया
वह दृश्य देख कर अभिमानी अर्जुन का माथा फिर गया

अब पुल नहीं टूकडे तीरों के सागर में थे पड़े हुए
कान्हा ने देखा अर्जुन की नजरें अब शर्म से गड़े हुए

केशव ने लोहा गरम देख तब सुन्दर एक प्रहार किया
कितना कमजोर था पुल तुम्हारा कपि ने जिसे बेकार किया

असमंजस में थे पार्थ चल पड़े कान्हा के पीछे पीछे
अब गर्व चूर हो चला शीश भी झुका हुआ नीचे नीचे

जा पहुंचे दोनों वहां जहाँ थे सातों ताड़ खड़े हुए
दो ताड़ पार कर तीजे में वह तीर मिला था फंसे हुए

वह तीर दिखाकर मोहन ने अर्जुन से तब ये पुछा है
यह देखो अर्जुन ! तीर तुम्हारा भेदन से भी चूका है

हे पार्थ बताओ ! अब तुम ही ! क्या अब भी शंका बाकी है ?
चाहो तो कोशिश और करो यह तो बस समझो झांकी है

तब हाथ जोड़ अर्जुन माधव के गीर पड़े थे चरणों में
हे नाथ ! क्षमा दे दो मुझको बड़ी भूल हुयी अनजाने में

अब गर्व नहीं करना मुझको यह तुमने मुझे बताया है
जो कुछ भी जग में होता है प्रभु ! बस तेरी ही माया है

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।