ग़ज़ल
मुझको सच कहने की बीमारी है
इसलिए तो ये संगबारी है
अपने हिस्से में मह्ज़ ख़्वाब हैं,बस!
नींद भी, रात भी तुम्हारी है
एक अरसे की बेक़रारी पर
वस्ल का एक पल ही भारी है
चीरती जाती है मिरे दिल को
याद तेरी है या कि आरी है?
हमने साँसें भी गिरवी रख दी हैं
अब तो ये ज़िन्दगी उधारी है
सब तो वाकिफ़ हैं आखिरी सच से
किसलिए फिर ये मारा-मारी है?
नींद का कुछ अता-पता तो नहीं
रात है, ख़्वाब हैं, ख़ुमारी है।