कविता – दीपक
एक दीपक जलाया है मैंने
प्रेम का
आशा का उम्मीदों का
मिटाता रहेगा भीतर का अंधियारा
तब तक जब तक
है जिस्म में सांस
कितने पथरीले,कँटीले
हो जीवन के रास्ते
साथ थामे तेरा जो
दिखे प्रकाश ही प्रकाश।
ना ठहरती हूँ
ना रूकती हूँ
ठोकरे मिलती है
फिर भी
मीलों चलती हूँ।
हाँ ये प्रेम का दीपक ही तो है
की इसके जलते ही
जगमगा गयी इच्छाये विश्वाश
दीप्त हुआ अन्तर्मन्
मन के बंजर जमीन में
उग आई सारी फसले
जो जोड़ती है
जीवन पथ पर
दिखाती सदमार्ग
और साथ तेरे ही
तो दिखती है मुझे मेरी मंजिल
की मुश्किलो की घड़ी में भी
बढ़ता आत्मविश्वाश
मिटाता हर तमस को
जलता ये दीपक
रूह तक उतरता
तेरा ये कैसा नशा
हंसती मुस्कुराती
तू जो साथ हर गम पी जाती
आँधियाँ आये झंझावाती हवा
ना बुझेगा कभी
ये प्रेम का दिया
मिटाना अन्धकार को
यही तो पहचान तेरी
रौशन किया मेरे ख़्वाबों का जँहा
संग तेरे मैं भी हर तिमिर मिटाऊं
और रौशन करूँ सारा जहाँ।
— शालिनी पंकज दुबे