देखो प्रिये !
मास चैत्र चला आया ,ताप सूर्य का दग्धाने लगा
सूखे सरोवर औ तालाब ,खग पंछी लगे अकुलाने
ताँक -झाँक करे वारि की ,दाने -दाने को सब तरसे
चाँद
आ गया आसमा में ,चाँदनी शीतलता देने लगी
नये पात पल्लव आये ,शिशिर परिधान उतरने लगे
संध्या वेला जब आती है ,अहसास सुखद लाती है
रमणीयता बढ़ जाती , अंग -अंग महक चहकते है
सांध्य
सुन्दरी नाच उठती , कलरव पंछी की गूज उठती
अवनि का ताप बढ़ता , तन -मन का काम जगता
बांके नयनों चल उठते , तीर मन्मथ से निकलते
निशा
सुन्दरी बादल पनघट, उतर आये भरने को सुधा
चूम -चूम निशा घन छितराये , मिलन हुंकार भरे
तारे देख मन्द मुस्कराये ,नैन कटाक्ष की चोट ऐसी
उर
छलनी सुराओं का हो जाये, विलासिता की दुर्ग टूटे
प्रेमी जन आकुल हो जाते ,देख चैत्र मास तेरा प्रताप
हर ओर तालाब कूप खुदते , प्याऊँ लग जाते है
मन्द
बयार कब चले अब , पात कब हिले लोग तकते
तृषा भी जल उठती है , भीम पराक्रम दिखा उठती
प्रवासी प्रियतम के उर में ,शोले भड़का उठती है
— डॉ मधु त्रिवेदी