मीडिया के बदलते स्वरूप का असर
भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है और लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मानी जाती है । लोकतंत्र के एक ऐसे स्तंभ रूप में जिसके बिना लोकतांत्रिक व्यवस्था की कल्पना ही नहीं की जा सकती । मीडिया को ये सम्मान यूंही नहीं मिला,बल्कि उसे इस सम्मान का हकदार बनाया है उसके वास्तविक कार्य पद्धति ने । और इसका उदाहरण है आजादी की जंग में सशक्त भूमिका निभानेवाली हमारी बाहुबली मीडिया । यह सर्वविदित है कि देश को मिली ए आजादी हमारी मीडिया की अथक प्रयासों का नतीजा है । इस लिहाज से वर्तमान में भी मीडिया की जिम्मेदारीयां काफी हद तक बढ़ जाती हैं ।
उसपे हर कीमत पर लोकतंत्र को बचाये रखने की जिम्मदारी आ जाती है । और देश के स्वतंत्रता संग्राम में हमारी ब्रिटिशकालीन मीडिया ने अपनी इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया था । उन्होंने अपने सत्यनिष्ठ पत्रकारिता से देश में जाकरूकता ला दी थी,जिसके फलस्वरूप आज हम एक आजाद, लोकतांत्रिक राष्ट्र के नागरिक हैं । हम स्वतंत्र हैं ।
पर वर्तमान समय में मीडिया का स्वरूप लगातार बदल रहा है । आज अधिकतर मीडिया घराने देश विरोधी ताकतों के समर्थन व गुणगान में व्यस्त दिखाई देते हैं । वे कश्मीर में अलगाववादियों और पत्थबाजों का समर्थन करते हैं तो दिल्ली में ‘भारत तेरे टुकड़े हजार होंगे’ कहनेवालों के बचाव में जुट जाते हैं । मीडिया का एक बड़ा तबका अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश विरोधी ताकतों की पैरवी कर रहा है । वे लोकतंत्र बचाने के नाम पर देश को तोड़ने के प्रयासों को बढ़ावा दे रहें हैं, जिसके फलस्वरूप लोगों में मीडिया के प्रति रोष की भावना उभर कर सामने आ रही है । लोग सोशल मीडिया के जरीये मीडिया के अन्य माध्यमों प्रति आक्रमक हो रहें हैं । वे सोशल मीडिया में अपनी भड़ास निकाल रहें हैं ।मीडिया के लिए उल्टे-सीधे शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है,जो मीडिया की विश्ववसनीयता के लिए नितांत ही दुर्भाग्यजनक है ।
ऐसी स्थिती में किसी को कोस कर या किसी और पर दोषारोप कर मीडिया को हाशिये पर लाने वाले लोग खुद की गलतीयों से पीछा नहीं छुड़ा सकते । जो लोग सोशल मीडिया में अपनी भड़ास निकाल रहें हैं वे आम लोग हैं, जिन्हे मतलब है देश से, इस समाज से और देश के लिए चिंतन करनेवाले व्यक्तियों व संगठनों से । देश के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता लगातार यूंही नहीं बढ़ रही है बल्कि उनके इस लोकप्रियता का कारण है उनकी निरपेक्षता और मीडिया के एक विशेष लॉबीद्वारा बातबात पर उन्हे निशाना बनाया जाना ।
मीडिया में सक्रिय एक खास तबका ऐसा भी है जो व्यत्किगत लाभालाभ के लिए अपनी पॉजीसन का फायदा उठाता है । मीडिया में एक बड़ा समूह ऐसा भी है जो राजनीतिक पार्टीयों की तरह ही छद्म धर्मनिरपेक्षता की वकालत करता है । अल्पसंख्यकों के नाम पर संप्रदाय विशेष की बात करता है पर वहीं प्रकृत अल्पसंख्यकों की श्रेणी में आनेवाले बौद्ध,जैन,सिख,पारसी आदि अन्य धर्मावलम्बियों का जिक्र तक नहीं करता । उनके लिए कभी नहीं बोलता । किंतु वहीं देश में रहनेवाले बहुसंख्यकों की भावनाओं को आहत करते हुए बीफ के समर्थन में हेडलाइन्स बनता है । दिनभर खबरें दिखाता है । बड़े-बड़े चर्चे कराता है । जिसकी प्रतिक्रिया तुरंत ही दिखने लगती है और में देश में आपसी सौहार्द के स्थान पर सांप्रदायिक झगड़े बढ़ जाते हैं ।
देश में आज जो सांप्रदायिकता का माहौल बना है ये कहीं ना कहीं परोक्ष रूप से मीडिया के ही एक तबके की देन है । उसी मीडिया की जो गोधरा कांड के बाद उपजे गुजरात दंगों का बस एक पहलु दिखाता है । जो बाबरी मस्जिद ढहाये जाने को बिग ब्रेकिंग बनाता है पर देश के विभिन्न हिस्सों में रोज गिराये जा रहे मंदिर पे मुंह तक नहीं खोलता । एक अखलाख के मारे जाने पर अपने ही देश को विश्व दरबार में असहिष्णु राष्ट्र के रूप में पेश करता है पर बंगाल,केरल,उत्तर प्रदेश ,जम्मू-कश्मीर में मारे जा रहे लोगों के लिए सुरक्षा की मांग तक नहीं करता ।
देश के लिए वह समय भी बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण रहा है जब एक आतंकवादी को देश के कानुन द्वारा फांसी दिये जाने पर चंद जयचंदी स्वदेशी आखबारों ने ही हमारी व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिये थे पर इन्होंने तब हैरानी नहीं जताई थी जब उसी आतंकवादी को बचाने के लिए रात को 2.00 बजे देश की सबसे बड़ी आदलत का दरवाजा खुलवाया गया था ।
सोशल मीडिया का भारतीय मीडिया के प्रति गुस्सा तब भी जायज लगता है जब भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नेताओंद्वारा देश के संसाधनों को नुकसान पहुंचाये जाने पर विशेष चर्चा नहीं होती । जबकी होना यह चाहिये कि मीडिया द्वारा सरकार व संसद पर इस बात का दबाव बनाया जाना चाहिये कि ऐसे नेताओं के गुनाह साबित होने पर उन्हे सश्रम कारावास की सजा दी जाए और इसके साथ ही उनके भ्रष्टाचार के बराबर की संपत्ति की कुर्की का विधान बनाया जाए । बैंक डिफ्लडरों पे बैंकद्वारा की गई कार्यवाई की तरह ही भ्रष्टाचार की सजा काट रहे व्यक्ति के परिवार के सदस्यों को भी चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिये । उनका राजनैतिक अधिकार पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाना चाहिये और यह तब संभव होगा जब मीडिया इसके लिए आवाज उठाये । जब मीडिया बिना किसी स्वार्थ के सरकार और संसद पर दबाव बनाए । पर ऐसा होगा नहीं, क्योंकि अधिकत्तर मीडिया घरानों का संपर्क राजनैतिक व्यक्तियों से या दल से है ।इस बात को भी झूठलाया नहीं जा सकता कि आज मीडिया की ही मेहरबानी की वजह से भारत की राजनीति में बहुत से अयोग्य राजनेताओं ने भी एंट्री मार ली है । मीडिया कवरेज की वजह से अब देश की राजनीति में ऐसे लोग घुस आए हैं जिनकी औकात अपना परिवार चलाने तक की नहीं है,पर यह देश का दुर्भाग्य है कि वे आज प्रदेश चला रहें हैं ।
मीडिया जिसे गरीबों की आवाज बनना चाहिये था वह आज कॉरपरेटों की पिछलगु बनी हुई है । देश में बढ़ती गरीबी,अशिक्षा,सामाजिक पक्षपात आदि मुद्दे तो जैसे अखबारों व चैनलों से गायब ही हो गये हैं । ये मुद्दे मीडिया को बस तब याद आतें हैं जब कहीं चुनाव हो और राजनैतिक नेताओंद्वारा उन्हे इन मुद्दों को उठाने के लिए उनपे कृपा बरसाई जाये । रोहित बेमुला की मौत मीडिया के दोहरे चरित्र का प्रमाण है । देश की संपूर्ण मीडिया ने इस खबर को पूरा कवरेज दिया था पर देश के विभिन्न इलाकों में हर रोज गरीबी और सामाजिक विभेद की वजह से मर रहे दलितों की सुध लेनेवाला कहीं कोई नहीं है ।
मीडिया का ये बदलता स्वरूप लोगों में निराशा की भावना को जन्म दे रहा है । मीडिया का पक्षपात लोगों को लगातार निराशा की गर्त में ढकेलता जा रहा है, जो समाज के लिए झझझ है । ऐसे में मीडिया के पैरोंकारों का ये दायित्व बनता है कि वे आधुनिक मीडिया से जुड़े पत्रकारों को उनका वास्तविक दायित्व याद दिलायें और समाज को पुणः सशक्त बनाने की दिशा में कार्य करें । तब जाकर सही मायनों में मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बन पायेगा अन्यथा ये एक कोड़ी जुमलेबाजी भर रह जायेगी ।
मुकेश सिंह
सिलापथार,असम