ख्व़ाबों का क्या कसूर
वो ख्व़ाब ही क्या
जो अधुरे ना रहे
अगर पूरी हो जाती
तो इन्हें ख्वाहिशों का नाम ना मिलता !
ये तो उस सपने जैसा है
जिसे हम जागती आँखो से
दिल में संजोतें है
और टूटने पर
मरे हुए किसी अपने जैसे
दहाड़े मारके रोते बिलखते है!
पर हमने कभी यह सोचा है
हम इन्हें क्यों देखते है
क्योंकि जो हम पा नहीं सकते
उनको ख्वाबों के सहारे
हासिल करते है !
इसलिए कसूर खुवाबों का नहीं
उन आँखों का है जो इन्हें देखते है !
— कुमारी अर्चना