योग, भोग एवं गृहस्थ
योगी योग करता है ज्ञान अर्जित करता है। देश, दुनिया, समाज और मानव को अपना अर्जन अर्पित करता है।
भोगी भोग करता है ज्ञान विसर्जित करता है। देश, दुनिया, समाज और मानव को अपना वर्जन अर्पित करता है।
गृहस्त गृहस्ती करता है और योग भोग दोनों को सामान धारा में लाकर खुद को देश, दुनिया, समाज और मानव के लिए अपने मर्म को समर्पित करता है।
भोगी भोग नहीं छोड़ पाता है, वह अडिग है अपने रूचि- वृत्त में, क्यों कि उसके पास योग और गृहस्थ की साधना नहीं है।
योगी की साधना अडिग होती है जिसपर आज ग्रहण लगा हुआ है यदा-कदा कहीं दिखती भी है तो विश्वास नहीं होता है।
गृहस्त भ्रमित है माया के जंजाल में उलझकर, प्रतिपल सामंजस्य बैठाने में टूट रहा है, जूझ रहा है योग और भोग दोनों को अपने कंधे पर उठाए हुए, भोग उस पर भारी पड़ रहा है वस्तुतः योग उससे दूर होने लगा है और मनोयोग विचलित है।
परिवर्तन की परिधि में घिरा हुआ इंसान योगी, भोगी और गृहस्ती के आवरण में लिपटकर कभी योग, कभी भोग तो कभी गृहस्त के मंच पर अपने आप को बैठा तो रहा है पर न्याय करने में हिचक जा रहा है और समीकरण बिगड़ रहे हैं।
सबल दृष्टान्त सदैव राह दिखाते रहे हैं जिसका उदय समय-समय पर होता रहा है और मानवता उससे अभिसिंचित होती रही है, शायद यही प्राकृतिक नियम भी हैं जिसका स्वागत करना हमारा फर्ज और दायित्व है।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी