गीत/नवगीत

जाकी अँखियों तेरी प्यास

बैठी चुप आगार मैं प्रज्वल दीपक दिशि चार
हर झोंके से लड़ रहीं पलकें निज बाँह पसार।।

दिशा भरम ना हो तुम्हेे ये दुनिया सजा बाजार।
आ जाओ हृद प्रेम भर मोरी बाती जले कुम्हार ।।

टलना छलना और लूटना जिसका हो ब्यौपार।
छिटके हाथों का मोल तुझे क्या देगा वो संसार ।।

यहाँ घर घर है त्योहार औ बने अगिन पकवान।
मैंने गुड़ संग पका रखे तेरे खातिर चुन कर धान ।।

पच खिड़की के पट खुले औ देहरी उथली आस।
वो माटी तप सोंधी भई जाकी अँखियों तेरी प्यास।।
प्रियंवदा अवस्थी©2015

प्रियंवदा अवस्थी

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से साहित्य विषय में स्नातक, सामान्य गृहणी, निवास किदवई नगर कानपुर उत्तर प्रदेश ,पठन तथा लेखन में युवाकाल से ही रूचि , कई समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित , श्रृंगार रस रुचिकर विधा ,तुकांत अतुकांत काव्य, गीत ग़ज़ल लेख कहानी लिखना शौक है। जीवन दर्शन तथा प्रकृति प्रिय विषय । स्वयं का काव्य संग्रह रत्नाकर प्रकाशन बेदौली इलाहाबाद से 2014 में प्रकाशित ।