व्यंग्य : बड़े आदमी
वे इतने बड़े थे-इसलिए कभी भी अपनी बड़ाई आप नहीं करते थे। सदैव मुस्कुराना और कभी-कभार चेहरे पर गंभीरता लगा लेना उनकी फितरत थी। चूँकि वे बड़े थे-इसलिए स्वाभाविक तौर पर प्रशंसा के भूखे होना कोई गलत नहीं था। मन से यह चाहते थे कि लोग उनकी प्रशंसा करें, यशोगान करें तथा उनके बड़प्पन पर प्रकाश डालें, इसके लिए उनके पास कुछ चमचे किस्म के लोग थे, जो उनकी बड़ाई का काम करते थे। वे अक्सर कहा करते कि उन्हें स्वयं की प्रशंसा करना अच्छा नहीं लगता। तब वे चमचे किस्म के लोग कहते-”हम किस मर्ज की दबा हैं। आपका बड़प्पन ही यह है कि आप अपने मुँह से अपनी बड़ाई नहीं करते, वरना आपमें जितने गुण हैं, वह किसी मानव जात में मिलना कठिन है। चन्द्रमा में दाग हो सकता है, आप में नहीं।“ उनकी बात से प्रसन्न होकर वे चमचों को भोजन कराते, चाय पिलाते, कुछ रूपया उधार देते, जिसे बाद में ब्याज सहित वसूल करते। बड़े होने से चमचे उफ भी नहीं करते तथा उनकी प्रशंसा में नये-से-नये छंद रचते रहते।
एक बार जब वे ऊँचे आसन पर बैठकर प्रवचन दे रहे थे, चमचे उनके आप्त वचनों को आत्मसात् कर बड़ाई का नया आख्यान रच रहे थे, उस समय उनके यहाँ मेरा जाना हुआ। मैंने हँसते हुए स्थान लिया और उनके अनमोल वचनों को सुनने लगा तो एक चमचा बोला-”कुछ समझ भी रहे हो अथवा खामख्वाह सिर हिला रहे हैं। ये गृहस्थ रूप में महात्मा हैं। इनकी आत्मा का शुद्धिकरण हो चुका है। जो भी अपने निर्मल मन से कहते हैं, वह सब मानव-कल्याण के लिए हैं। तुम्हें शायद पता नहीं है, ये कितने बड़े आदमी हैं।“
मैं बोला-”ये भी पाँच फुट चार इंच लम्बे हैं, इससे ज्यादा तो ये क्या बड़े होंगे ?“ चमचे एक साथ हँसे और बोले-”तुम्हारी अक्ल घास चरने गई हुई है तो यहाँ आये क्यों हो ? बड़े लोगों के साथ उठना-बैठना सीखो। धर्मशाला बनवाने के लिए इन दिनों चंदे का कार्य कर रहे हैं। कितना बड़ा पुण्य का काम है। क्या तुम चंदा कर सकते हो ?“
मैंने कहा-”मैं एक मन्दिर का निर्माण करवा रहा हूँ। इनसे चंदा लेने आया हूँ, दिलवाओ ताकि भगवान का मन्दिर बन सके।“
चमचे बोले-”ये चंदा देते नहीं, लेते हैं। पुण्य का कार्य खुद करते हैं। चंदा लेना है तो दर-दर की खाक छानो। बड़े आदमी होते तो एक आवाज पर चंदा आ जाता। पहले बड़ा बनने का प्रयास करो, आचरण सुधारो। उसके बाद आना इनके दरबार में।“
— पूरन सरमा