आस लगाये क्यों बैठी हूँ
उठी आन्धी ऐसी मन में
छिड़ गये मन के तार फिर
आज भी जुगनू की तरह
करती रही बस तेरा इन्तजार
बेसब्र सी
ये आस लगाये क्यों बैठी हूँ
चमक सी तेरी बातों में
हर पल नई आस भी
खोकर अपने कई सपने
तुममें करती रही बस युँ ही
बेसब्र सी
ये आस लगाये क्यों बैठी हूँ
था तुम्हें तिमिर में चमकने का
वरदान सदैव ही ऐसा तो क्या
उड़ न पाती मैं निरीह
ये बात दिल में लगाये
सिर्फ तुझसे आस लगाये
बेसब्र सी
ये आस लगाये
क्यों बैठी हूँ
प्रलय की राह में भी
प्रणय की आस लगाये
ये शमां युँ ही बेसब्र बेखुद सी
ये आस लगाये क्यों बैठी हूँ।
अल्पना हर्ष