“अकेली जिन्दग़ी”
अकेली जिन्दग़ी भी कोई जिन्दग़ी है !
अपने साये से भी
घुटन होती है
अपनी लाश को खुद के ही कंधे पे ठोना है
पर कब तक ढोउँ इसको
मैं थक चुकी हूँ
अकेले चलते चलते
अकेली जिन्दग़ी भी कोई जिन्दग़ी है !
मैं तुम्हारे काँधे पर सिर रखके
हँसना और रोना चाहती हूँ
तुम्हारे सिने से लिपटकर
प्यार बहुत प्यार करना चाहती हूँ
तुम्हारे गोद मैं लेटकर
कुछ देर बेफ्रिक सोना चाहती हूँ
मिठ्ठी मिठ्ठी मोहब्ब़त की आहें भरना चाहती हूँ
मैं तुम्हारे संग अपनी बची खुची जिन्दग़ानी बिताना चाहती हूँ !
यदि तुम भी यही चाहते हो
जो मैं चाहती हूँ
तो आ जाओ मेरे पास
क्योंकि तुम बिन मैं अधुरी हूँ
अकेली जिन्दग़ी भी कोई जिन्दग़ी है!
— कुमारी अर्चना