प्रसून
हे प्रसून! तुम आभा के आकर हो
मन सुगंध, तन शोभा-श्री का घर हो
कहीं श्वेत, कहीं नील रंग
तुम रक्त रंग से तर हो
हे प्रसून! तुम आभा के आकर हो।
महक बिखेरे घर-आँगन सब
तुम ऐसे सुगंध के पर हो
प्रकट हो नव चेतना जन में
हेतु हर्ष, प्रफुल्लता के हो
स्नेह बढ़ाये, भेंट तुम्हारी
तुम प्रेम के स्वर हो
हे प्रसून! तुम आभा के आकर हो।
तान तुम्हारी, मान बढ़ाये
नर-नारी जीवन का
रूप बढ़ाये निशा काल में
तारे कृष्ण गगन का
तुम भी भू के तारे हो
हे प्रसून! तुम आभा के आकर हो।
मनोहारी आकर्षण स्पर्श से
मन जैसे लालायित हो
आभा तुमरी देख-देखकर
तन-मन तुम्ही में अट हो
तुम गमक जगत के नर हो
हे प्रसून! तुम आभा के आकर हो!
— नरेश मौर्य