कविता

शनाख़्त

जब भी देखा ये मंज़र
बहुत सी सम्त नज़र आयी हैं मुझको
हरएक आँख आइना हों जैसे
कभी दिखता हूँ इनमे
किसी दिलबर की तरह
कभी खुद को खड़ा पता उदू में
कभी तारी हुई दरवेशी मुझमे
कभी दुनिया सा मैं हारा हुआ हूँ
हर राह और मोड़ आइना हुआ है
पर अपना अक्स मैंने अभी देखा नहीं है
मैं बे-हिस हूँ.. मैं गफलत में पड़ा हूँ
सोचता हूँ मेरी शनाख़्त क्या है……….
जब भी देखा ये मंज़र …..बहुत सी सम्त नज़र आयी हैं मुझको
( शनाख़्त -पहचान     उदू – दुश्मन)

 

अंकित शर्मा 'अज़ीज़'

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