“दो दिन का खलिहान”
झिनकू भैया को गाँव में फोन किया, झुँझलाकर बोले भाई दो दिन बाद में बात करूँगा, अभी गेंहूँ काटने वाला मशीन आया है उसी के पीछे कुत्ते की तरह भाग रहा हूँ। ये ये ये!!!!!!!! भाई मशीन वाले!!!!!! मेरा खेत छोड़कर क्यों जा रहे हो, कल से तुम्हारे पीछे लगा हूँ। मेंड़ पर आकर बिना काटे मत जाओ भैया, काट दो फिर आगे बढ़ना!!!!!!! उनका खेत कटा या नहीं, मालूम नहीं पर मेरा फोन कट गया और मेरी वार्ता अनकटे खेत की तरह इंतजार करने को विवश हो गई।
दो दिन बाद मैंने फिर झिनकू भैया की घंटी बजा दी, अरे यार शहर वालों को कोई काम धाम है या नहीं, जब देखो फोन की घंटी बजाते रहते हैं। बोलो क्या जानना चाहते हो, पुरे गाँव की कटिया हो गई, सबका अन्न सबके बखार में भरा गया। जिनका बाकी है वे लोग हाथ से काट कर भूसा बनाएंगे, समाचार पूरा हो गया अब चैन से रहो, मुझे भी गायों के लिए भूसे की व्यवस्था में दौड़ना है, उसी चक्कर में हूँ भूसा वाली मशीन भी गाँव में आ गई है, दो ट्रॉली भूसा के लिए पता नहीं किसका किसका अहसान शर पर ढ़ोना पड़ेगा।
मैंने कहा भैया, शहर वालों को तीन दिन की छुट्टी मिली है सो फोन कर लिया, मुझे क्या पता कि गाँव वालों को तीन दिन का फसली काम मिल गया है। याद है न भैया, पुरे तीन महीने कटिया, दंवरी और ओसवनी होती थी तब जाकर कहीं अन्न देवता घर में पधारते थे और भूसा, जलवनी तो बकसीस में ही मिल जाता था। यह बात अलग थी कि तब मेहनत पनाह मांगती थी और मर्द तथा बैल घिसा जाते थे। खैर, खेती का समय है व्यस्तता तो है ही पर पुरे वर्ष आराम भी तो है भैया। मशीनी युग है मरद और बरद दोनों अब मजे से ही जी रहे हैं, क्या गाँव और क्या शहर, पैसा ही दोनों का भाग्यविधाता है…. दो दिन का खलिहान है भर लीजिये जितना हो सके। अब बरसात की झपटी में घंटी बजाऊंगा, फोन की……..जय राम जी की…….
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी