कविता : कबाड़ उठाती लड़कियाँ
पाचं – छः जन के
समूह में
जा रही हैं वे लड़कियाँ
राष्ट्रिय राजमार्ग के एक ओर
रंग बिरंगे, पुराने से
कपड़े पहने
जो कि धुले होंगे
महीनों पहले
उनके किसी त्यौहार पर l
पावों में अलग – अलग
चप्पल पहने
दिख जाती हैं पैरों की
बिबाइयां सहज ही
उन के हाथों में हैं
राशन वाली किसी दुकान से खाली हुई
सफेद बोरियां l
राजमार्ग पर चलते हुए
जब दिख जाती है उन्हें
किसी गोलगप्पे
या चाट वाले की रेहड़ी पर
उमड़ी भीड़
तो चल पड़ते हैं उनके कदम
स्वतः ही उस ओर
अपनी जिव्हा का स्वाद
मिटाने नहीं
बल्कि खाली पड़ी किसी
पानी या कोल्ड ड्रिंक की बोतल
या इसी तरह के किसी
दुसरे सामान की
आस में l
ये लडकियां किशोरियां हैं
सत्रह – अठरह बर्ष के करीब की
सड़क के एक ओर चलते
मिल ही जाती हैं सुनने को
किसी ट्रक ड्राईवर की फब्तियां
या मोटर साईकल पर जाते
मनचलों के बोल
जिन्हें कर देती हैं वे अनसुना
याद कर
पारिवारिक जरूरतों की
प्राथमिकताओं को ।
चहक उठती हैं वे
शैक्षणिक भ्रमण पर निकली
उस बस को देखकर
जिसमें बैठीं हैं
उनकी ही उम्र की छात्राएं
जो हिला देती हैं हाथ
उन्हें देखकर
अभिवादन स्वरुप l
क्या उन्हें नहीं होगा शौक
बन – संबरकर
अच्छा दिखने का
या किसी महंगे मोबाइल से
सेल्फी खींचने का ?
वे कबाड़ उठाती लडकियां
चिढ़ाती हैं
आज भी
इकीसवीं सदी के विकास को
और साथ ही
प्रति व्यक्ति आय में हुए
इजाफा दर्शाने वाले
अर्थशास्त्रियों के आंकड़ों को
और संविधान के उन
अनुच्छेदों को भी
जिनमें दर्ज हैं
उनको न मिल सके
कई मौलिक अधिकार l
वे मेहनतकश बेटियाँ हैं
अपने माँ – बाप के आँगन में खिले
सुंदर फूल हैं
जिम्मेदारियां उठाकर
परिवार का भरण – पोषण करते हुए
जो बन गई हैं माताओं की तरह
इस उम्र में ही
और जूझ रही हैं
मूलभूत आवश्यकताओं की
उहापोह में l
-मनोज चौहान