डा. अम्बेदकर को पूर्व जन्म के महान् संस्कारों ने उच्च स्थान प्राप्त कराया
ओ३म्
डा. अम्बेदकर जी के जन्म दिवस 14 अप्रैल को 4 दिन व्यतीत हो चुके हैं। उस दिन हम उन पर कुछ लिखना चाहते थे परन्तु लिख नहीं सके। हमारा मानना है कि किसी महापुरुष के जीवन पर चिन्तन करना केवल जन्म दिन व पुण्य तिथि पर ही उचित नहीं होता अपितु हमें यदा कदा ऐसा करते रहना चाहिये और उनके जीवन की कुछ अच्छी बातों को जानकर उसे अपने जीवन मे धारण करना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करते तो उस महापुरुष का जन्म दिवस मनाना सार्थक नहीं होता। कई लोग स्वार्थवश भी उनका यशोगान करते हैं जबकि उन लोगों का जीवन व कार्य डा. अम्बेडकर जी के जीवन व शिक्षाओं के अनुरूप प्रतीत नहीं होता। डा. अम्बेडकर को कहीं से कोई आरक्षण प्राप्त नहीं हुआ था फिर भी उन्होंने चारित्रिक गुणों व पुरुषार्थ से अपने जीवन की भौतिक उन्नति में यश व सफलतायें अर्जित की थी। यदि वह अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों में सफलता एवं देश की उन्नति में उल्लेखनीय योगदान कर सकते थे तो आज उनके अनुयायियों को, जिन्हें उनसे कहीं अधिक सुविधायें प्राप्त हैं, उनके जीवन की ऊंचाईयों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये परन्तु ऐसा दिखाई नहीं दे रहा है। उनके सभी अनुयायियों को उन जैसा न बन पाने के प्रश्न का उत्तर ढूंढना चाहिये जिससे वह उनके समान बन सके और उनके आन्दोलन व कार्यों को आगे बढ़ा सके।
डा. अम्बेडकर जी ने अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों में जीवनयापन व शिक्षा प्राप्त की। डा. अम्बेडकर इस जन्म में अत्यन्त उच्च संस्कारों को लेकर जन्में थे। वह उच्च शिक्षा के लिए विदेशों में भी गये। बड़ोदा और कोल्हापुर के आर्य नरेशों ने उनको सहयोग भी किया जिससे उनकी प्रतिभा के विकास में सहायता मिली। इस प्रकार डा. अम्बेडकर ऋषि दयानन्द जी से भी जुड़ जाते हैं क्योंकि इन दो नरेशों में अपने निर्णय लेने में कहीं न कहीं ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की विचारधारा कार्य करती थी। हमें ज्ञात नहीं है कि डा. अम्बेडकर जी ने कभी कहीं ऋषि दयानन्द जी की आलोचना की है जैसी कुछ अहंकारी नेताओं ने अपनी अल्पज्ञता से की है। इसलिए भी डा. अम्बेडकर हम सब आर्यसमाजियों के लिए विचारणीय हैं। जिस निर्धनता और छुआछूत या अस्पर्शयता का दंश उन्होंने बचपन से सम्भवतः अन्तिम दिनों तक झेला, वह हमें कष्ट देती है। काश हिन्दू समाज में स्वामी दयानन्द से पूर्व उन जैसे योग्य महात्मा व धर्मात्मा हुए होते तो जातिवाद व छुआछूत का महारोग आर्य हिन्दू जाति में संक्रमित न हुआ होता। आज भी जन्मना जातिवाद और अल्प मात्रा में छुआछूत का रोग हिन्दू समाज से समाप्त नहीं हुआ है। आज के अनेक सुशिक्षित लोगों में भी इस जन्मना जातिवाद के अंश पाये जाते हैं। न केवल उच्च सामाजिक उन्नत लोगों में अपितु दलितों में भी अपनी जाति को लेकर उच्च व नीच की भावनायें हमने अपने जीवन में अनुभव की है। सभी धर्मों व मतों के आचार्यों को मिलकर इसको दग्धबीज करना चाहिये परन्तु हमें लगता है कि आज का युग ऐसे कार्य करने का नहीं है। आज तो सभी आधुनिकता की चकाचैंध से प्रभावित होकर उस आधुनिकता के प्रकाश को पाने के लिए दौड़ लगाते हुए दीख रहे हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिये। हम स्वच्छता की बात करते हैं तो इसके लिए हमें सबसे पहले अपनी आत्मा व मनों को स्वच्छ बनाना होगा जो कि आज नहीं है। हमें मानव मानव में सभी प्रकार के अज्ञानता पर आधारित कृत्रिम वेद विरुद्ध भेदभावों को समाप्त कर एक ईश्वर की समान विधि से स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित एक भाषा, एक जैसी अनुभूति, एक भावना, सहानुभूति व सहयोग का वातावरण बनाकर समाज से अविद्या व दुःखों को पूर्णतः दूर करने का प्रयास करना चाहिये।
छुआछूत के अनुचित एवं निन्दनीय होने का विचार आज हमारे मन में आया है। वह यह कि हम सब प्राणियों की जीवात्मा एकदेशी है और ईश्वर सर्वव्यापक है। ईश्वर सर्वशुद्ध, पवित्र और सबका मंगल चाहने व करने वाला है। हम यह भी जानते हैं कि ईश्वर सर्वातिसूक्ष्म होने से सब आत्माओं व उनके शरीरों के एक एक परमाणु व परमाणुओं के भीतर इलेक्ट्रोन व प्रोटोन आदि कणों में भी व्यापक है। अतः जब परम पवित्र ईश्वर हर समय सभी मनुष्य एवं इतर प्राणियों की आत्माओं व शरीरों में व्याप्त रहकर भी अपवित्र नहीं होता तो मनुष्य किसी को छू लेने, उसके हाथ से जल पीने व भोजन करने, उससे मित्रता व सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों को बनाने से अपवित्र कैसे हो सकता है? अर्थात् कभी नहीं हो सकता। यदि होता है तो ईश्वर तो हमसे कहीं अधिक अपवित्र होता है। अतः इसे यथार्थ रूप में जानकर जन्मना जातिवाद व छुआछूत का सबको पूर्णतः त्याग करना चाहिये। हमें तो छुआछूत का व्यवहार छुआछूत मानने वालों का मानसिक रोग, अविद्या वा मूर्खता ही प्रतीत होती है। जो ऐसा करते हैं वह घोर अविद्याग्रस्त हैं। उनके साथ उनके वह आचार्य जो उनकी इस अविद्या को बढ़ाते हैं व दूर करने का प्रयास नहीं करते, वह भी उनसे अधिक दोषी प्रतीत होते हैं न केवल समाज के ही अपितु ईश्वर के भी। क्या ईश्वर जन्मना जातिवाद व छुआछूत मानने वाले लोगों को पसन्द कर सकता है, कदापि कदापि नहीं। ईश्वर ने वेदों में स्वयं कहा है कि मैं इस जड़, चेतन जगत में व्यापक हूं। हे मनुष्य, तू इस बात को जान। इसे जानकर तू सबके प्रति अच्छा व्यवहार कर। बुराईयों व दुराचरणों को छोड़ दें। त्याग पूर्वक भोगों का भोग कर। यह धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य किसी मनुष्य का नहीं है। यह सब धन परमात्मा का है इसलिये यहीं रह जाता है। मृत्यु होने पर किसी धनवान मनुष्य के साथ नहीं जाता। अनेक धनवान मनुष्य तो धन के कारण ही हत्या तक के शिकार हो जाते हैं। यह धन उनकी रक्षा नहीं करता जिसकी रक्षा उन्होंने अपने जीवन काल में की होती है। ऐसे लोगों के कारण ही मोदी जी को नोट बन्दी करनी पड़ी थी। यदि काला धन के स्वामी अपने धन को परोपकार व दु,िखयों की सेवा में व्यय करते तो उससे उन्हें यश व कीर्ति प्राप्त होती व परजन्म सुधरता। अस्तु। यहां वेदों में अपरिग्रह की शिक्षा व उपदेश दिया गया है परन्तु आज का शिक्षित जगत भी जीवन भर परिग्रह में ही लगा रहता है। उसे अपनी मृत्यु और उसके बाद इस जन्म के कर्मों के आधार पर मिलने वाले सुख व दुखों की कोई परवाह ही नहीं है। उसके धार्मिक आचार्य भी उसे इससे दूर रखने के कारण उसके अपराधी ही सिद्ध होते हैं। ऋषि दयानन्द जी को इसकी चिन्ता थी। इसलिए उन्होंने सभी मनुष्यों को सच्ची उपासना पद्धति दी, अग्निहोत्र यज्ञ का विधान दिया और साथ ही पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ का भी विधान कर उसको आचरण में लाने को कहा जिससे कि मनुष्य का परजन्म सुधरता है। ऋषि दयानन्द का समस्त चिन्तन सत्य को स्वीकार करने व असत्य का त्याग करने के साथ अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि कराने वाला है जबकि अन्य किसी मत में यह विचार व भावना परिलक्षित नहीं होती। डा. अम्बेडकर जी भी अपने सद्गुणों के कारण महापुरुष बने न कि धन सम्पदा के कारण। अतः सभी को सद्गुणों का ही संग्रह करना चाहिये जो सदा साथ में रहे।
डा. अम्बेदकर जी ने अपने समय में प्रचलित उच्च शिक्षा (एमए, पीएचडी, एमएससी, डीएससी, बैरिस्टर-एट-ला, एलएलडी एवं डी.लिट.) प्राप्त की और देश व समाज के उत्थान में भारत के प्रथम कानून मंत्री बनकर एक आग्नेय नेता की विशेष भूमिका वहन की। संविधान का प्रारुप तैयार करने वाली समिति के आप अध्यक्ष थे। अनेक विषयों पर आपके प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से विचार नहीं मिलते थे। इससे उनके स्वतन्त्र चिन्तन और देशहित की उच्च भावनाओं का पता चलता है। यदि डा. अम्बेडकर जी की सभी उचित बातों को मान लिया जाता तो आज देश का सामाजिक स्वरूप कहीं अधिक समरसता लिए हुए होता। अर्थशास्त्र में आपने शोध उपाधि, पीएचडी, डीएससी, डीलिट आदि, प्राप्त कीं थी। आपने अर्थशास्त्र विषयक अनेक ग्रन्थों का निर्माण भी किया है। डा. अम्बेडकर के जीवन में यह भी ज्ञात होता है कि वह दलगत राजनीति वा देश का अहित करने वाले विषयों से बहुत ऊपर उठे हुए थे। वह किसी दल व मत के प्रलोभन में नहीं आये। उन्होंने देश व हिन्दू हितों का भी ध्यान रखा जबकि हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था से वह गहराई से आहत थे। उन्हें अपने बचपन व युवावस्था में सामाजिक और आर्थिक न्याय नहीं मिला। यदि हिन्दुओं में जातिवाद, छुआछूत, ऊंच-नीच, अगड़े-पिछड़े की विचारधारा न होती तो डा. अम्बेडकर जी बहुत अधिक उन्नति करते और देश का स्वरूप कहीं अधिक अच्छा बन सकता था। हमें उनके जीवन का मुख्य सन्देश यही लगता है कि हम जन्मना जातिवाद की व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंके। जन्मना जाति के सूचक शब्द का बहिष्कार हो और यह शासन के आदेश से प्रबन्धित होने चाहिये। इसके साथ ही हमें अधिक से अधिक विद्या अर्जित कर, दुराचरणों से दूर रहकर, देश व समाज की उन्नति में स्वय को सर्वात्मा समर्पित करना चाहिये। हमें डा. अम्बेडकर जी की यह बात भी आकर्षित एवं प्रभावित करती है कि उन्होंने हिन्दू समाज की जातिगत व्यवस्था से त्रस्त होने पर भी उसी मत की एक शाखा बौद्धमत को चुना। वह चाहते तो वैदिक धर्म के अन्तर्गत आर्यमत वा आर्यसमाज को भी चुन सकते थे। इसका कारण यह हो सकता है कि वह अपने सार्वजनिक जीवन में इतने अधिक व्यस्त थे कि वह व्यस्तता के कारण ऋषि दयानन्द के साहित्य को पूर्णतः पढ़ नहीं सके। यदि उन्होंने उनके सभी ग्रन्थों वा विचारधारा को यथार्थ रूप से जाना होता तो देश व समाज के लिए बहुत उत्तम होता। बौद्ध मत स्वीकार कर भी उन्होंने हिन्दुओं को दलितों के प्रति अपने व्यवहार को ठीक करने व जन्मना जाति व्यवस्था को समाप्त करने का संकेत ही दिया प्रतीत होता है। डा. अम्बेडकर जी ने जो समाज व देशहित के कार्य किये उसके लिए देश व समाज उनका ऋणी है। उनको अपना मसीहा मानने वालों को उनके आदर्शों को अपने जीवन में धारण करने के साथ देश व समाज को जोड़ने और राष्ट्र विरोधी शक्तियों से लोहा लेने में अपनी सक्रिय भूमिका निभानी चाहिये। हम डा. अम्बेडकर जी को उनके सभी शुभ कार्यों के लिए नमन करते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य