“ना तुम ना तुम्हारी आभास आकृतियाँ”
यहाँ भी वहाँ भी
जहाँ भी देखती हूँ
वहाँ तुम ही तुम नज़र आते हो
ये मेरी नजरों का धोखा है
या मन का भ्रम!
उड़ते बादलो में
चलती हवाओं में
बहती नदियों में
लहराते खेतों में
खिलते फूलों में
उड़ते पक्षियों में
तुम नज़र आते हो !
मेरे आसपास गुजरते लोंगों में
रास्ते पर चलते मुसाफिरों में
घर आते जाते महमानों में
तुम्हारा ही चेहरा ढूँढती हूँ
पर कहीं भी तुम पहचान में नहीं आते
घूप में आती परछाई सी गायब हो जाते हो !
मैं तुम्हारे पीछे बच्चों जैसी मैं तितली समझकर दौड़ती हूँ
और औंधे मुँह गिर जाती हूँ !
मैं तुम्हारी आभास आकृतियों को कैद करना चाहती हूँ
सदा के लिए अपना बना रख सकूँ
कुछ भी तो नहीं मेरे पास ना तुम ना तुम्हारी आभास आकृतियाँ !
कुमारी अर्चना