लघुकथा – मानसिकता
“क्या मैं आपको आगे कहीं छोड़ सकता हूँ?” उसने कार ठीक उसके करीब रोकते हुए मीठी आवाज में कहा।
फ्लाईओवर के एक ओर खड़ी वह अक्सर लिफ्ट मांगती नजर आती थी और कई लोगों के अनुसार अपने लिए नित नए साथी ढूँढने का उसका ये सटीक तरीका था। अक्सर पत्नी के साथ की वजह से वह चाहकर भी कभी उसे लिफ्ट नहीं दे पाया था लेकिन आज अकेले होने के कारण वह इस अवसर को खोना नहीं चाहता था।
“नेकी और पूछ पूछ!” कहते हुए वह उसे देख मुस्कराते हुए सीट पर विराजमान हो गयी।
“कहाँ तक जाएंगी आप?” कहते हुए उसने कार आगे बढ़ा दी।
“जहां आप ले चले।”
“तो क्या आप कुछ घंटो के लिए मेरा साथ पसंद करेंगी। कहते हुए उसे, उसके बारे में लोगों की राय एक दम सही लगी।
“तो आप मेरे साथ समय गुजारना चाहते हैं!” वह अनायास ही मुस्कराने लगी।
“अगर आपको एतराज न हो तो!”
“मुझे कोई एतराज नहीं, पर क्या मैं इससे पहले आप के फ़ोन से एक कॉल कर सकती हूँ।”
हाँ क्यों नहीं? कहते हुए उसने कुछ असमंजस में अपना ‘आई फ़ोन’ उसे थमा दिया।
“….. सखी, इस नंबर को देखकर तुम ये तो समझ ही रही होगी कि मैं इस समय तुम्हारे पति के साथ हूँ।” कुछ क्षण में ही उसने एक नंबर मिला बात भी शुरू कर दी थी। “तुम्हे याद है तुमने मुझे एक बार कहा था कि यदि पत्नी समर्पित और सच्चरित्र हो तो कोई कारण नहीं कि पति भटक जाएँ। और मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था क्योंकि मैं कभी नहीं समझ पायी कि मेरे पति ने ‘वह सब’ क्यों किया था?”
इसी बीच वह कार रोक, इस बदलते घटनाक्रम को समझने के प्रयास में फोन रिसीवर पर पत्नी की मनोस्थिति महसूस कर खुद को निष्क्रिय सा अनुभव करने लगा था।
“न चिंता मत करना सखी, मैं ऐसा कुछ नहीं करने जा रही जैसा लोग मेरे बारे में सोचते है और न ही मुझे तुम्हारे समर्पण पर कोई संदेह है, बस मैं तो…” अपनी बात पूरी करते हुए उसने एक जलती नजर सखी के पति पर गड़ा दी। “ये सोच रही हूँ कि पत्नी के पूर्णसमर्पित होने के बाद भी अगर पति भटकता है तो ये महज उसकी कामनाओं की दुर्बलता है या सदियों से नारी को भोग्या मान लेने की नर-मानसिकता।”