बाल परित्यक्ता
उसने कुल पंद्रह बसंत ही देखे थे कि पति ने परस्त्री के प्रेम – जाल में फँस कर उसे त्याग दिया । उसका नाम उमा था अब उसके पास दो साल की बच्ची थी जिसके लालन -पालन का बोझ उसी पर ही था साथ ही सुनने को समाज के ताने भी थे । मर्द को भगवान ने बनाया भी कुछ ऐसा है जो अपने पर काबू नहीं कर पाता और फँस जाता है पर स्त्री मरीचिका में । बंधन का कोई महत्व नहीं । प्रेम भी अंधा होता है लेकिन इतना भी नहीं कि अग्नि को साक्षी मान कर जिस स्त्री के साथ सात फेरे लिए है उस बंधन को भी तोड़ डाले।
धीरे – धीरे बच्ची बड़ी होती गयी । बच्ची का नाम उज्ज्वला था साफ वर्ण होने के कारण माँ ने उसको उज्ज्वला नाम दिया था ‘ जवानी की दहलीज पर पैर रखते ही वह और भी सुंदर लगने लगी । लेकिन अपनी इस सुन्दरता की ओर उसका बिलकुल ध्यान न था । यह सुन्दरता उसके लिए अभिशाप बनती जा रही थी । चलते फिरते युवकों की नजरें उस पर आकर सिमट जाती थी ।
सामान्य लड़कियों से भिन्न उसे गुड्डे गुड़ियों के खेल कदापि नहीं भाते थे । प्रकृति के रमणीय वातावरण में जब उसकी हम उम्र लड़कियाँ लगड़ी टॉग कूद रही होती थी गुटके खेल रही होती थी वह किसी कोने में बैठी अपनी माँ के अतीत को सोच रही होती थी कि कहीं ऐसी पुनरावृत्ति उसके साथ न हो और भय से काँप उठती थी ।
मलिन बस्ती में टूटा – फूटा उसका घर था लोगों के घर -घर जाकर चौका बर्दाश्त करना उनकी आय का स्रोत था माँ बच्ची को पुकारते हाथ बटाँने के लिए कहा करती थी , बेटी कहा करती थी माँ ‘मुझे होमवर्क’ करना है । माँ की स्वीकरोक्ति के बाद बेटी उज्जवता पढ़ने बैठ जाती । बच्ची पास के निशुल्क सरकारी विद्यालय में पढ़ने जाया करती थी किताब कापी का खर्च स्कालरशिप से निकल जाता था ।
धीरे – धीरे माँ की आराम तंगी को समझ बेटी ने ट्यूशन पढाने का काम शुरू कर दिया । मेट्रिक की परीक्षा पास करते ही माँ उमा को ब्याह की चिंता सताने लगी । परित्यक्ता होने के कारण बेटी के साथ बाप का नाम दूर चला गया था लोग गलत निगाह से देखते थे । इसलिए जब माँ घर से दूर होती तो उज्ज्वला को अपने साथ ले जाती ।
उमा को भय था कि उसकी बेटी उज्ज्वला भी अपनी माँ की तरह घर , परिवार एवं समाज से परित्यक्त न हो ।इसलिए हर पल उज्ज्वला का ध्यान रखती थी क्योंकि पति के छोड़ने के बाद जितना तन्हा और और अकेला महसूस करती थी उसकी कल्पना मात्र से काँप उठती थी । पति के छोड़ने के बाद सास ससुर ने भी घर से निकाल दिया था , अतः दुनियाँ में कोई दूसरा सहारा न था । माँ बाप तो दूध के दाँत टूटने से पहले ही राम प्यारे हो गये थे ।
उसे खुद अपना सहारा बनने के साथ बेटी का सहारा भी बनना था ।
उज्ज्वला की सुन्दरता भी किसी अलसाए चाँद से कम न थी पर इस सुन्दरता का पान करने वाले मौका परस्ती भी कम न थे । इसलिये माँ उमा डरती थी कि उसकी बेटी कहीं जमाने की राह में न भटक जाए ।
अपनी यौवनोचित चंचलता को संभालते हुए उसने आत्मनिर्भर बनने की कोशिश की अतः उसने पास के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाने का निर्णय लिया । अब माँ -बेटी के जीवन में नया मोड़ आ गया था अब उसकी माँ को लोग “मैडम जी की माँ के नाम से पुकारते थे । इस तरह समाज में उसका नया नामकरण हो चुका था । अब उसके रिश्ते भी नये आने लगे थे , लेकिन माँ से जुदा होने के अहसास के साथ उज्ज्वला को कोई रिश्ता कबूल नहीं था ।
लेकिन माँ उमा का शरीर जर्जर हो चुका था इसलिए उसकी इच्छा थी कि उसकी बेटी शीघ्र ही परिणय सूत्र में बँध जाये लेकिन बेटी जब विवाह की बात चलती तभी “रहने दे माँ , तुम भी “कहकर इधर -उधर हो जाती ” थी । इसलिए माँ ने एक सुयोग्य वर देखकर उज्ज्वला का विवाह कर दिया ।बेटी के जाते ही माँ फिर से नितांत अकेली हो गयी थी ।
— डॉ मधु त्रिवेदी