गीतिका/ग़ज़ल

“गीतिका”

सुना है सुरत ए गैर भी अपनों के जैसी ही भली लगती है

फर्क सिर्फ इतना ही है कि वह बिना नाकाब लगाए चलती है

तादात गैरों की कभी कम नहीं हुई अपनों के बूते रहकर

लटके दिखते हैं बहुतेरे चेहरे जहाँ बारात निकलती है॥

अहमीयत कहती है भीड़ में अकेला कम नहीं होता साथियों

गिराकर देखो वहीं कहीं इक ढिकरा भगदड़ ए भीड़ डरती है॥

इम्तिहान तो कईयों ने दिया होगा खुद अपने इत्मीनान का

सफल एक अदना ही हुआ होगा यही पृष्ट परिणाम कहती है॥

यूं तो पूरी दुनियाँ कहने को अपनी ही है गैर कोई नहीं

इरादे नेक हों फिर भी बिना परिचय झिझक मकसद बदलती है॥

यह अहसास ही काफी है कि कोई अपना आस-पास बैठा है

उफनते समंदर से तैरकर कश्तियाँ उछल बाहर निकलती है॥

लहर बदनाम होती है मचलते तूफानों से निकलकर गौतम

किनारों तक जाकर फिरता हैं पानी जहाँ मछली उछलती हैं॥

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ