क्रोधी पर लोक कल्याणकारी थे भगवान परशुराम
भगवान परशुराम को उनके हठी स्वभाव, क्रोध और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए याद किया जाता है। भगवान परशुराम एक उदाहरण हैं कि क्रोध इंसान को बर्बाद कर सकती है, लेकिन अगर हम अपने क्रोध और अन्य इंद्रियों पर काबू पा लें तो हम भी उतम लोगों की श्रेणी में आ सकते हैं। भगवान परशुराम विष्णु के छठें अवतार हैं जो वामन एवं रामचंद्र के बीच का काल है। भगवान परशुराम बैशाख शुक्ल पक्ष अक्षय तृतीया के पुण्य दिवस पर ही अवतरित हुए। इस दिन उनके कर्मों का स्मरण और अनुसरण कर कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में सफलता की सोपान चढ सकता है।
भगवान परशुराम क्रोधी होने के साथ साथ अत्यंत समझदार, कल्याणकारी और धर्मरक्षक भी थे। इस विषय में एक घटना बेहद लोकप्रिय है: भगवान परशुराम के पिता भृगुवंशी ऋषि जमदग्नि और माता राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका थीं। ऋषि जमदग्नि बहुत तपस्वी और ओजस्वी थे। ऋषि जमदग्नि और रेणुका के पांच पुत्र रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्ववानस और राम (परशुराम) हुए। एक बार रेणुका स्नान के लिए नदी किनारे गईं। संयोग से वहीं पर राजा चित्ररथ भी स्नान करने आया था, राजा चित्ररथ सुंदर और आकर्षक था। राजा को देखकर रेणुका भी राजा के प्रति आसक्त हो गईं किन्तु ऋषि जमदग्नि ने अपने योगबल से अपनी पत्नी के इस आचरण को जान लिया। उन्होंने आवेशित होकर अपने पुत्रों को अपनी मां का सिर काटने का आदेश दिया। किन्तु परशुराम जो पितृभक्त थे,को छोड़कर सभी पुत्रों ने मां के स्नेह के कारण वध करने से इंकार कर दिया, लेकिन परशुराम ने पिता के आदेश पर अपनी मां का सिर काटकर धर से अलग कर दिया। क्रोधित ऋषि जमदग्नि ने आज्ञा का पालन न करने पर परशुराम को छोड़कर सभी पुत्रों को चेतनाशून्य हो जाने का श्राप दे दिया। वहीं परशुराम को खुश होकर वर मांगने को कहा। तब परशुराम ने पूर्ण बुद्धिमत्ता के साथ वर मांगा। जिसमें उन्होंने तीन वरदान मांगे–पहला- अपनी माता को फिर से जीवन देने और माता को मृत्यु की पूरी घटना याद न रहने का वर मांगा। दूसरा- अपने चारों चेतनाशून्य भाइयों की चेतना फिर से लौटाने का वरदान मांगा और तीसरा वरदान स्वयं के लिए मांगा जिसके अनुसार उनकी किसी भी शत्रु से या किसी भी युद्ध में पराजय न हो और उनको लंबी आयु प्राप्त हो। इस तरह अपनी बुद्धिमता से परशुराम ने अपनी माता को भी जीवित कर लिया, पिता की आज्ञा का पालन भी किया और अपने भाइयों का भी साथ दिया।
इस घटना के कुछ समय बाद ही एक दिन जमदग्नि ऋषि के आश्रम में कार्त्तवीर्य अर्जुन आए। जमदग्नि मुनि ने कामधेनु गौ की सहायता से कार्त्तवीर्य अर्जुन का बहुत आदर सत्कार किया। कामधेनु गौ की विशेषताएं देखकर कार्त्तवीर्य अर्जुन ने जमदग्नि से कामधेनु गौ की मांग की किन्तु जमदग्नि ने उन्हें कामधेनु गौ को देना स्वीकार नहीं किया। इस पर कार्त्तवीर्य अर्जुन ने क्रोध में आकर जमदग्नि ऋषि का वध कर दिया और कामधेनु गौ को अपने साथ ले जाने लगा किन्तु कामधेनु गौ तत्काल कार्त्तवीर्य अर्जुन के हाथ से छूट कर स्वर्ग चली गई और कार्त्तवीर्य अर्जुन को बिना कामधेनु गौ के वापस लौटना पड़ा। यह घटना जब हुई उस समय परशुराम वहां मौजूद नहीं थे। जब परशुराम वहां आए तो उनकी माता छाती पीट-पीट कर विलाप कर रही थीं। अपने पिता के आश्रम की दुर्दशा एवं शव पर 21 घाव देखकर और अपनी माता के दुःख भरे विलाप सुन कर परशुराम जी ने इस पृथ्वी पर से क्षत्रियों को 21 बार संहार करने की शपथ ले ली। पिता का अन्तिम संस्कार करने के पश्चात परशुराम ने कार्त्तवीर्य अर्जुन से युद्ध करके उसका वध कर दिया। इसके बाद उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से रहित कर दिया । इस पर महर्षि बालिमिकी का कहना है कि उन्होने श्रत्रविमर्दन न करते हुए बल्कि राजविर्मदन किया। और उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र में पांच सरोवर भर दिए। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया। उन्होंने 21 बार इस पृथ्वी का परिक्रमण किया जिसमें 108 शक्तिपीठ एवं तीर्थों की स्थापना की।
राम से परशुराम-परशुराम के बचपन का नाम राम था, उनके नाम के साथ भी एक पौराणिक कहानी जुड़ी हुई है जो कुछ इस प्रकार से है- एक दिन गणेश भगवान पृथ्वी पर भ्रमण कर रहे थे और किसी बात पर उनका राम से साथ झगड़ा हो गया। राम ने गणेश को धरती पर पटक दिया जिससे गणेश का एक दांत टूट गया और राम ने गणेश से उनका प्रिय अस्त्र “परशु” छीन लिया। जब यह बात भगवान शिव को पता चली तो उन्होंने राम को “परशुराम” का नाम दे दिया. भगवान परशुराम जी शास्त्र एवम् शस्त्र विद्या के पूर्ण ज्ञाता हैं। प्राणी मात्र का हित ही उनका सर्वोपरि लक्ष्य होता है। भगवान शिव, परशुराम जी के गुरू हैं। वह तेजस्वी, ओजस्वी, वर्चस्वी महापुरूष हैं। न्याय के पक्षधर होने के कारण भगवान परशुराम जी बाल अवस्था से ही अन्याय का निरन्तर विरोध करते रहे। उन्होंने दीन-दुखियों, शोषितों और पीड़ितों की निरंतर सहायता एवम् रक्षा की है इसलिए लोग इन्हें कल्याणकारी भगवान के रुप में भी जाना जाता है।
– लाल बिहारी लाल