क्या मनुष्य जीवन का उद्देश्य आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर धनोपार्जन कर सुख व सुविधाओं से युक्त जीवन जीना मात्र ही है?
ओ३म्
आज का हमारा उपर्युक्त विषय पाठकों को कुछ अटपटा सा लग सकता है। हमें लगता है कि यह विषय विचारणीय है और आज देश व संसार में जो आपाधापी मची है, उसमें प्रत्येक व्यक्ति को इसका न केवल स्वयं चिन्तन करना चाहिये अपितु अपने स्वाध्यायशील मित्रों से भी परामर्श करना चाहिये। आर्यसमाज जाकर यदि विद्वानों से भी इसकी चर्चा व तर्क-वितर्क करें तो और भी अच्छा व आवश्यक है। हम यह भी बता दें कि इस प्रश्न व विषय का समुचित उत्तर कोई सुलझा हुआ आर्य विद्वान ही दे सकता है। हम इसके योग्य नहीं फिर भी हम इस पर विचार करने की दृष्टि से कुछ पंक्तियां लिख रहे हैं। मनुष्य जीवन है क्या? इस पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि संसार में यह बहुत पुरानी व्यवस्था चल रही है कि माता-पिता से सन्तानों की उत्पत्ति होती आ रही है। शिशु के रूप में जन्म लेकर मनुष्य किशोर व युवा बनता है, युवावस्था में उसका विवाह होता है, फिर कालान्तर में वह वृद्ध हो जाता है और लगभग 65-80 वर्ष का होकर उसकी मृत्यु हो जाती है। मनुष्य के जन्म पर विचार करें तो यह ज्ञात होता है कि उसमें उसका शरीर भौतिक पदार्थों का बना हुआ है। यह अन्नमय शरीर कहलता हैं। शरीर व भौतिक पदार्थ सभी जड़ होते हैं। उनमें चेतना, संवेदन का गुण व प्राणतत्व नहीं होता। चेतन पदार्थ जड़ वा भौतिक पदार्थों से भिन्न पदार्थ है। बालक के शरीर के भौतिक पदार्थ तो माता के भोजन से बालक को मिल जाते हैं परन्तु चेतन तत्व जिसे आत्मा कहते हैं, वह माता के शरीर व शिशु में कहां से कैसे प्रविष्ट हो जाता है, इस विषय में न तो माता-पिता जानते हैं और न हि आज का आधुनिक विज्ञान। यह विषय वैदिक साहित्य व वेदों का है। महाभारत काल के बाद अविद्या, लोगों के आलस्य प्रमाद व पुराण आदि मिथ्या ग्रन्थों के कारण वेद व सत्य ज्ञान विलुप्त हो गया था और उसका स्थान मिथ्या मान्यताओं, अन्धविश्वासों, मिथ्या परम्पराओं व कुरीतियों ने ले लिया था। ऋषि दयानन्द (1825-1883) की कृपा से विलुप्त ज्ञान महाभारत काल व उससे पूर्व समय से भी सम्भवतः कुछ अधिक ज्ञानपूर्ण रूप में हमें प्राप्त हुआ है। हम कुछ भी कर लें, ऋषि दयानन्द का ऋण नहीं चुका सकते। ईश्वर प्रदत्त शक्तियों व प्रेरणाओं से ही वह इस अपूर्व कार्य को करने में समर्थ हो सके थे, ऐसा हमारा अनुमान है।
ऋषि दयानन्द ने समस्त वैदिक व इतर साहित्य का मंथन कर बताया कि संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति तीन अनादि व नित्य पदार्थों का अस्तित्व है जो अमर व अविनाशी हैं। यह जीवात्मायें अपने कर्मानुसार जन्म व मरण के बन्धनों में बंघे रहते हैं। जब मनुष्य व अन्य किसी प्राणी के शरीर की किसी की मृत्यु होती है तो उस शरीर का जीवात्मा शरीर से पृथक होकर ईश्वर की प्रेरणा व शक्ति से भावी जन्म लेने वाले शरीर की ओर गति करता है। ईश्वर की यह पूर्णतः दोषमुक्त व्यवस्था है। मृत्यु के बाद पूर्व शरीर से निकली जीवात्मा ईश्वर की प्रेरणा से अपने कर्मानुसार अपने भावी पिता के शरीर में प्रविष्ट होती है। कुछ समय वहां रहकर वह माता के शरीर में आती है। और माता के शरीर से यह जीवात्मा भविष्य में एक बालक व बालिका के शरीर के रूप में जन्म लेती है। यह मानव का शरीर इसमें विद्यमान जीवात्मा को परमात्मा से पूर्व कर्मों का भोग करने के लिए और नये ऐसे कर्म करने के मिलता है जिससे कि यह दुःखों में डालने वाले बन्धनों से मुक्त हो जाये। प्राचीन काल में लोग आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करते थे जिससे अशुभ कर्म न होने से जीवात्मा की उन्नति होकर वह जन्म व मृत्यु के बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष व परम गति को प्राप्त हो जाती थी। यही मनुष्य जीवन का मुख्य व अन्तिम लक्ष्य है। इसका विस्तार से वर्णन महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ में किया है। यहां ईश्वर के स्वरूप का भी किंचित परिचय प्राप्त कर लेना उचित होगा। ईश्वर चेतन पदार्थ है और सच्चिदानन्दस्वरूप है। जीवात्मा एकदेशी है तो ईश्वर सर्वव्यापक है। ईश्वर एक है तो जीवात्माओं की संख्या अनन्त हैं। ब्रह्माण्ड में दो ही सूक्ष्म व चेतन सत्तायें हैं। इनकी सूक्ष्मता ही आंखों से दिखाई न देने का कारण हैं। आंखों से तो हम वायु में विद्यमान कणों को भी नहीं देख पाते जो कि जीवात्मा व परमात्मा की अपेक्षा सैकड़ों व हजारों गुणा स्थूल हंै। अतः आंखों से दिखाई न देने के कारण ईश्वर के अस्तित्व में शंका नहीं करनी चाहिये। आंखों से तो हम अपनी व दूसरों की जीवात्मा को भी नहीं देख पाते हैं परन्तु किसी को किसी में आत्मा के अस्तित्व की शंका नहीं होती। शरीरों में विद्यमान जीवात्मायें ही उनके होने का प्रमाण हैं। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड की रचना को देखकर इसके रचयिता का ज्ञान सबको होता है। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, अजर, अमर, अजन्मा व अनुत्पन्न आदि है। मनुष्यों को उसका ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में उसके द्वारा दिये गये ज्ञान ‘‘वेद” ज्ञान से होता है। यदि कोई वेद न पढ़ सके तो उसे ऋषि दयानन्द द्वारा की गई वेद व्याख्या या मन्त्रों के हिन्दी व संस्कृत अर्थों को जानने का प्रयत्न करना चाहिये। अन्य भाषाओं में इनके अनुवादों को देखने व समझने से भी कुछ कुछ काम चल सकता है। वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेदाध्ययन कर ही हम स्वयं को, ईश्वर व संसार को भली भांति समझ सकते हैं। मनुष्य को अपने कर्तव्यों का ज्ञान भी वेद से ही होता है। मनुष्यों की सहायता करने के लिए ही हमारे ऋषियों ने वेद के व्याख्यान किये हैं। इसमें 6 दर्शन, 11 उपनिषद्, मनुस्मृति सहित ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि और आर्याभिविनय सम्मिलित हैं।
ईश्वर व जीवात्मा के विषय में जान लेने पर मनुष्य जीवन के उद्देश्य व कर्तव्यों को जान व समझ सकता है। जीवात्मा के जन्म का उद्देश्य पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्मों को भोगना मुख्य है। मनुष्य जीवन में उसे नये शुभ व अशुभ कर्मों को करने का अवसर भी मिलता है। शुभ कर्मों को करके उसकी उन्नति व सुखों की प्राप्ति होती है तो अशुभ कर्मों को करने से उसका पतन व दुःखों की प्राप्ति होती है। यह सुख व दुःखों की प्राप्ति ईश्वर जीवात्मा को कराता है जो कि सभी जीवात्माओं का उनके क्षण क्षण का साक्षी होता है। अतः जीव को अशुभ कर्मों से हर हाल में बचना चाहिये।
मनुष्य आजकल वेदों की शिक्षा से सर्वथा रहित है। आजकल अंग्रेजों द्वारा निर्धारित शिक्षा, जो अपूर्ण शिक्षा है, जिसमें मिथ्या शिक्षा भी सम्मिलित है, बच्चों को पढ़ाते हैं। जैसी शिक्षा होगी वैसा ही मनुष्य बनता है। यदि उसे जन्म से ही वेदों की शिक्षा दी जाये तो वह ईश्वर व जीवात्मा आदि को जानने वाला तथा ईश्वर भक्ति में रुचि रखने वाला बनेगा। आजकल की शिक्षा में ईश्वर भक्ति और वह भी यथार्थ ईश्वर भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है। इस कारण आज कल के शिक्षित लोग भी यथार्थतः नास्तिक ही हैं। वेदों की निन्दा करने वाले व वेद के न जानने वालों को नास्तिक कहा जाता है। आजकल के लोग इन दो में एक श्रेणी के अवश्य होते हैं। आजकल तो मिथ्या परम्पराओं का दौर व समय है। सभी लोग अपने अपने मत व परम्परा को सीख कर उसी के अनुसार आचरण करते हैं। वह यह नहीं विचार करते कि उनके मत की कौन सी शिक्षा व संस्कार अच्छे हैं और कौन से नहीं? इससे मनुष्य का भली प्रकार से निर्माण नहीं हो रहा है जैसा कि होना चाहिये। दूसरों को देख कर और विवेक बुद्धि न होने के कारण मनुष्य धन की ओर आकर्षित हो रहे हैं और इस कारण समाज में अभद्रता, भ्रष्टाचार, अन्याय व अत्याचार हो रहे हैं। धन के लोभ व सुख-सुविधाओं के चक्र में फंस कर लोग चोरी, हिंसा, भ्रष्टाचार, दुराचार आदि अपराधों को कर रहे हैं। मतों की अनेक अनुचित व अनावश्यक प्रथाओं के कारण लोगों की बुद्धि कुन्दित व क्षीण हो चुकी है। वह सत्य व असत्य अथवा विवेक को धारण नहीं कर पाते हैं। सत्य व असत्य का ज्ञान वेदों के अध्ययन से ही होता है। कर्म फल का सिद्धान्त क्या है? ईश्वर की दण्ड व्यवस्था किस प्रकार से काम करती है? ईश्वर और अपनी आत्मा की उपेक्षा के परिणाम क्या होगें? सभी मनुष्य इनसे अनभिज्ञ हैं। धन से हमें अच्छा स्वादिष्ट भोजन, बड़ा सुन्दर भवन, कार व बैंक बैलेंस तो मिल सकते हैं, नौकर चाकर भी मिल सकते हैं, परन्तु अखण्ड पूर्ण सुख वा आनन्द नहीं। कर्म-फल सिद्धान्त पर दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़ (गुजरात) से उपयोगी पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं, उनका अध्ययन किया जाना चाहिये। इसमें एक ग्रन्थ बृहती ब्रह्म मेधा भी है। इस ग्रन्थ को पढ़कर विवेक उत्पन्न होता है। इससे ईश्वर के बनाये संसार की व्यवस्था पूर्ण रूप में समझ में आ जाती है।
मनुष्य अपना अधिकांश समय धनोपार्जन व सुखों के भोग में लगाता है। वेदों का ज्ञान प्राप्त न करने, ईश्वरोपासना, यज्ञ, परोपकार, दीनों व दुखियों की सेवा आदि पर्याप्त रूप में न करने की सजा तो इनके अपराधियों को मिलेगी ही। उदाहरण के लिए कक्षा 10 का एक बालक सभी विषयों की पूर्ण तैयारी करने के स्थान पर स्वयं को एक ही विषय पर केन्द्रित कर दें और दूसरे विषयों की उपेक्षा कर दें तो क्या उसकी कक्षा 11 में उन्नति व प्रोन्नति हो सकती है? कदापि नहीं। ऐसा ही मात्र धन कमाने और सुविधायें भोगने तथा ईश्वर भक्ति, सन्ध्या, यज्ञ, स्वाध्याय, परोपकार, दान, समाज सेवा व सात्विक जीवन व्यतीत न करने का दण्ड तो भोगना ही होगा। ऐसा करने से उसकी मनुष्य बने रहने की पात्रता भी समाप्त हो जाती है। सम्भव है कि ऐसे मनुष्य अगले जन्म में मनुष्य न बनकर अनेक प्रकार के अन्य प्राणियों की योनि में जन्म लें जहां दुःख ही दुःख है, इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है। वेदवेत्ता मनु जी ने मनुस्मृति में लिखा है कि जिस मनुष्य के कर्म 50 प्रतिशत से अधिक खराब होते हैं उसका मनुष्य जन्म नहीं होता। वह पशु, पक्षियों आदि कि निम्न योनियों में जन्म लेकर दुःख भोगता है। मनुष्य के बाद पशु-पक्षियों की योनियों में जन्म को ही जीवात्मा का पतन कहा जाता है। हममें से कोई भी अपना पतन नहीं चाहेगा परन्तु यह वास्तिविकता है कि हम पतनोन्मुख ही हैं।
आईये, समय निकाल कर वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करें और अपने कर्तव्य को पहचानें। ऐसा कोई कर्म हम न करें जिसका भावी परिणाम दुःख हो। यह याद रखें कि ईश्वर हमें हर क्षण व हर पल देख रहा है वा हमारे सभी कर्मों का साक्षी है। हमारा कोई कर्म उसकी दृष्टि से बच नहीं सकता। ‘अवश्यमेव हि भाक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं।’ को याद रखकर जीवन व्यतीत करें। यदि धन अधिक हो तो उसे परोपकार में लगायें। इससे आत्मा उन्नत होगी और परजन्म में भी सुख की प्राप्ति होगी। बैंकों में पड़ा धन व सम्पत्तियां पुण्यदायक नहीं होगीं। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य