व्यंग्य कविता : लिखता हूं पर छपता नहीं
“बसंती दादूर” के वचन ।
कभी कोई सुनता नहीं।।
लिखता हूं रातें जगजग कर।
कमबख्त फिर भी छपता नहीं।।
रचनाएँ मेरी पढपढ कर ।
संपादक जी हो गए बोर।।
नक्कारखाने मे “तूती” की।
किसी ने सुनी कहां है शोर।।
लिखने की आदत से ऐसा हूं मजबूर।
कलम घिसाई से नही रह सकता मैं दूर।
हिम्मत-ए-लेखक त मदद-ए-संपादकका।
मुझपर चढ़ा है ऐसा सुरूर।।
कोई रहमदिल संपादक इकदिन ।
रचना मेरी छापेंगे जरूर।।
सविनय निवेदन पत्र संग ।
करूँ संपादक से याचना।।
इसबार कृपा करके महोदय ।
मेरी कृति भी छापना।।
सुनकर मेरे करूण क्रंदन।
प्रकाशक का दिल पिघलता नहीं।।
लिखता हूं रातें जगजग कर ।
कमबख्त फिर भी छपता नहीं।।