कश्मीर आगे का रास्ता क्या है?
सवाल थोडा अटपटा सा है जिस पर कुछ देर को ही सही पर नेहरु को भी कोसा जाना लाजिमी है लेकिन सवाल फिर वही उभरकर आएगा क्या नेहरु को दोष देकर कश्मीर का हल निकल जायेगा? कश्मीर पर नेहरू की नीतियों को आज बहुत कोसा जाता है. लेकिन कोसने से आगे का रास्ता क्या है? जब आजादी मिली तो कश्मीर में राजा हिंदू था और प्रजा मुसलमान. हिंदू राजा हिंदुस्तान में रहने को राजी नहीं था, वो अपने लिए स्वतंत्र राज्य चाहता था. लेकिन वहां की मुस्लिम प्रजा ने जिन्ना के पाकिस्तान के बजाय नेहरु के हिंदुस्तान में रहने का फैसला किया. क्या उसी फैसले की बुनियाद पर कश्मीर की मुश्किलों का हल नहीं ढूंढ़ा जाना चाहिए? कश्मीर के जिस युवा ने आज कश्मीर के नये जिन्नाओं की बदोलत अलगाववाद को अपना करियर बनाया है. जो आजादी की बात करते हैं. उनको भी अपने दिल में पता है कि राजनीतिक भूगोल के लिहाज से यह कभी संभव नहीं है.
आज हर कोई कहता है कि कश्मीर में पिछले कुछ सालों में हालत बेहद खराब हो गये है पर इस खराब हालात का जिम्मेदार कौन है? यहाँ आकर लोग थूक गटक लेते है, या फिर सेना, सरकार पाकिस्तान का नाम लेकर अपने राजनैतिक कर्तव्य से पल्ला झाड़ लेते है. हम भी मानते है आज हालात 1990 की स्थिति से बहुत अलग है. 1990 में जो लोग सीमा पार गए और ट्रेनिंग लेकर वापस आए, उनमें से ज्यादातर सिर्फ इस्लामी समझ के तत्व थे. उन्हें कुछ खास समझ नहीं थी, दिमाग में सिर्फ एक बात थी कि कश्मीरी पंडितों को बाहर भगाना है. भारत से जुड़े किसी भी किस्म के प्रतीकों, चिन्हों को घाटी से हटाना है और वहां के समाज को मुस्लिम मान्यताओं के आधार पर एकरूप बनाना है. उनकी यही मंशा थी और वे इसमें काफी हद तक कामयाब भी हुए.
लेकिन अभी यह जो नए दौर का कट्टरपंथ है, पत्थरबाजी वाला दौर, यह कई गुना ज्यादा कट्टर चरमपंथी है, जिनके हाथों में पत्थर और मुहं में आजादी है. आज कश्मीर से प्रकाशित अखबार, भारत में बैठे कथित मानवतावादी इन लोगों के साथ खड़े दिखाई दे रहे है. लेकिन भीषण दमन को झेलने के बाद भी ऐसा कोई नहीं दिख रहा जो कश्मीरी पंडितों के साथ खड़ा हो. वामपंथी पार्टियां जो कि दुनिया भर में अल्पसंख्यकों के साथ खड़े रहने का दावा करती हैं, वे आज तक बिल्कुल उदासीन रहीं है, कांग्रेस का भी यही रुख था और देश की सिविल सोसाइटी भी इस सवाल से मुंह मोड़े रही. आज फिर हर कोई एक स्वर में कह रहा है कि भारत सरकार को इस मसले पर बात करनी चाहिए. लेकिन बात किससे करें? उनसे जिनके हाथ में पत्थर और दिमाग में मजहबी आजादी का जूनून?
हमेशा से जब मामला कश्मीरी पंडितों का मामला आता है उस पर मौन साध लिया जाता है. अभी एक न्यूज़ वेबसाइट पर कश्मीरी पंडितों का दर्द उन्ही की जुबानी पढ़ रहा था कि वर्तमान हालात से जूझते पंडित भी अब जनमत संग्रह की बात करने लगे है. वो कहते है कि साल 2010 में बारामूला शहर से करीब तीन किलोमीटर दूर, झेलम के किनारे एक बेहद खूबसूरत कॉलोनी कश्मीरी पंडितों के लिए बनाई गई है जिन्हें दोबारा कश्मीर में बसाने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री पैकेज के तहत सरकारी नौकरियां दी गई हैं. झेलम के बिलकुल नजदीक बसी यह कॉलोनी दूर से तो बेहद खूबसूरत दिखती है, लेकिन इसमें रह चुके या रह रहे लोगों का दर्द जानकार इस भौगोलिक खूबसूरती की कोई अहमियत नहीं रह जाती. इस कॉलोनी में आज बमुश्किल दस कश्मीरी पंडितों के परिवार ही रह रहे हैं. ऐसा नहीं है कि पंडितों को निशाना बनाया जा रहा हो लेकिन यहां जो माहौल अब बन गया है, उसमें पंडितों का रहना नामुमकिन हो गया है.’ बच्चों की पढ़ाई से जुड़ी उनकी एक बड़ी समस्या ये भी है कि यहां के लगभग सभी निजी स्कूलों में इस्लाम की पढ़ाई कराई जाती है. वो नहीं चाहते कि उनके बच्चे इस्लाम सीखें.
घाटी में बचे कुचे कश्मीरी पंडित कहने लगे हैं, कश्मीर की समस्या का समाधान अब जनमत संग्रह के अलावा कुछ नहीं हो सकता. जनमत संग्रह हो जाना चाहिए. जब तक ये नहीं होगा कश्मीर जलता रहेगा. अब आर या पार हो जाना चाहिए. और उन्हें लगता है कि अभी भले ही कश्मीर की आजादी की मांग ज्यादा दिखती है लेकिन अगर जनमत संग्रह हुआ और वोट की नौबत आई, तो लोग भारत से अलग होने के नुकसान पर भी विचार करेंगे और अंततः भारत के पक्ष में बहुमत होगा. जबकि यह हर कोई जानता है कि कश्मीर से भारत अपना हक छोड़ दे यह संभव है ही नहीं. 1947 में यह संभव था लेकिन तब भी कबायलियों के हमले से बचने के लिए वहां लोगों ने भारत के साथ आने का फैसला किया. जिस दिन भारत की सेना ने श्रीनगर के हवाईअड्डे पर लैंड किया उसी दिन कश्मीर का भविष्य भारत साथ जुड़ गया था. अब इस जोड़ को तोड़ना कश्मीर के राजनीतिक भूगोल के महत्व के चलते संभव नहीं है. अश्विनी पंडिता कहते हैं, ‘जिन्होंने कभी कश्मीर देखा नहीं, उसे कभी जाना नहीं, जो हमेशा दिल्ली में बैठकर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, उन्हीं का खून जनमत संग्रह के नाम से खौलता है. हमने कश्मीर को जलते देखा है और सबसे ज्यादा इसे भोगा है. हम जानते हैं कि ये अब एक ऐसा नासूर बन गया है जिसे अनदेखा करने से काम नहीं चलेगा.”
कश्मीर सिर्फ भूमि का टुकड़ा नहीं है. वो भारत के लिए राष्ट्रीयता की सबसे बड़ी परख है, लेकिन इस परख को अगर राष्ट्रवाद के उन्माद की प्रयोगशाला बनाया जाएगा तो मुश्किलें और बढ़ेंगी. जम्मू-कश्मीर में राज किसका चलेगा, महबूबा मुख्यमंत्री रहेंगी या राज्यपाल शासन लागू होगा. मुद्दा यह है कि कश्मीर कैसे बचेगा. और उसको बचाने के लिए अगर विरोधी विचारधारा के किसी राजनेता की भी सुननी पड़े तो सुनना चाहिए. देश चलाने के लिए हमेशा बाहुबल नहीं दिखाया जाता, कई बार मिन्नत भी करनी पड़ती है. दूसरा एक सबको समझ लेनी होगी कि हम सीमा और नियंत्रण रेखा पर हम पाकिस्तान से आने वाले आतंकवादियों को रोक सकते हैं लेकिन घाटी में लोगों के दिलो-दिमाग में आने वाले मजहबी उन्माद को कैसे रोकेंगे? यदि हम कुछ देर के लिए मान भी लें कि भारत बहुत बड़ा निर्णय लेकर कश्मीर को आजाद कर भी दे तो कश्मीर जैसा जमीन का छोटा सा टुकड़ा जो कि राजनीतिक भूगोल के लिहाज से इतना अहम है, क्या उसको कोई उसको आजाद रहने देगा? 1947 के अनुभव से हमें लगता है कि अगर भारत वहां से अपनी सेना हटा देता है तो कुछ घंटे के अंदर-अंदर पाकिस्तान या चीन या दोनों वहां मौजूद होंगे. तो उनका आजाद रहना संभव नहीं होगा?
राजीव चौधरी