लघुकथा

एक कप चाय

पिछले कई दिनों से न जाने कैसी मंदी बाज़ार में छाई हुई थी| कोई ग्राहक ही नज़र नहीं आता था| ऐसे में प्रातःकाल दूकान को खोल कर बैठना और साँझ तक दो चार चाय अपने पल्ले से पी कर घर चले जाना यही दिनचर्या रह गयी थी टाईपिंग दुकानदारों की| ऐसे में कोई एक्का दुक्का ग्राहक कोई पन्ना टाइप करवाने आ जाता तो रेगिस्तान में एक बूँद के समान होता था|
अन्य दिनों की भाँति आज भी ख़ाली हाथ ही जाना लगता है, ऐसा ही सोच रहा था रोहन| बच्चो ने रसोई का कुछ सामान भी मँगवा रखा है, ऐसे में तो वह भी ले जाना मुश्किल है| ऊपर से दूकान का किराया भी आन खड़ा हुआ है| इसी महीने बिजली का बिल भी आना है| जाने कैसे गुजारा होगा| इन्ही ख्यालों में खोया हुआ था कि अचानक मोबाईल की घंटी बजी| उधर से आवाज आयी
“रोहन।’
‘जी……’
‘मैं शर्मा बोल रहा हूँ…. दूकान पर ही है न|”
‘हाँ|’
‘ठीक है किसी दूसरे का काम मत लेना मैं आ रहा हूँ मुझे टाइपिंग का कुछ अर्जेन्ट काम करवाना है|’
फोन कट गया| रोहन विचार कर रहा था यहाँ कौनसी भीड़ लगी हुई है| पिछले कई दिनों से सौ के नोट के दर्शन भी नहीं हुए हैं| आओ कुछ तो पैसे हाथ में आएंगे| घर पर रसोई का कुछ सामान तो ले जा सकूंगा| कुछ देर बाद शर्मा जी आ गए| रोहन ने चाय के लिए पूछा|
‘हाँ…. हाँ… भई तेरे यहाँ की चाय तो जरूर पीएंगे|’
रोहन ने चाय मंगवा दी| जब तक चाय आई टाइपिंग का काम शुरू कर दिया| थोड़ी देर बाद चाय आ गयी, दोनों में चाय पी और फिर से काम लग गए| शर्मा जी ने पच्चीस पेज टाइप करवा लिए| काम ख़त्म होने पर पांच-पांच प्रिंट निकलवा लिए और धन्यवाद कर जाने लगे| रोहन ने शर्मा जी से पेमेंट करने को कहा
‘अंकल जी पेमेंट?’
‘अरे भई! तुम मेरे अपने हो तभी तो इतनी दूर तुम्हारे पास आया था| पैसे-वैसे तो तुम्हे देने के लिए मेरे पास हैं नहीं| हाँ तुमने मुझे एक चाय पिलाई है कहो तो मैं भी तुम्हे एक कप चाय पिला सकता हूँ|’
इतना कह कर शर्मा जी अपना सामान समेत कर निकल लिए, रोहन उनको जाता देखता रहा और उनके अपनेपन के बारे में सोचता रहा|

विजय 'विभोर'

मूल नाम - विजय बाल्याण मोबाइल 9017121323, 9254121323 e-mail : [email protected]