गृहस्थ नाव ( लघुकथा )
दीपक के साथ हुए झगड़े में संध्या ने घर छोड़ने का फैसला कर लिया । वह जरुरी सामान बैग में ठूँस ही रही थी कि उसकी नज़र कलाई घड़ी पर पड़ी । ” ये तो दीपक की चाय का समय है , चाय समय पर न मिले तो सिर दुखने लगता है उसका ।” उसने दीपक की ओर देखा , जो आँखों पर बाँह रखे लेटा हुआ था ।बैग वहीं छोड़ वह रसोई में गई और चाय की पतीली गैस पर चढ़ा डिब्बे से बिस्किट निकालने लगी । ” ओफ्फो… बिस्किट को भी आज ही ख़त्म होना था । दीपक तो कभी खाली चाय नहीं पीते , अब क्या करूँ ? शाम अलग गहराने वाली है ।” उसने पुनः घड़ी पर नज़र डाली और तुरंत तेल की कड़ाही चढ़ा चिप्स तले और ट्रे ले जाकर कमरे में इतनी तेज़ आवाज़ के साथ रखी कि दीपक सुन ले । फिर रसोई में आकर खड़े खड़े ही तेज़ी से चाय का घूँट भरने लगी ।” बाप रे… छत पर बड़ियाँ डाली थीं सूखने को …” चाय अधूरी छोड़ वह छत की ओर भागी । बड़ियाँ समेट सीढ़ियाँ उतर ही रही थी कि उसका ध्यान कोने में पड़े धुले कपड़ों के ढेर पर गया । पुनः घड़ी पर नज़र दौड़ाई ,” जहाँ इतनी देर हुई वहाँ दो मिनिट और सही ” कपड़ों की तह बनाकर उन्हें अलमारी में जमाया और बैग उठा बाहर निकल गई । कॉरिडोर तक पहुँची ही थी कि मोबाइल घनघना उठा , ” हेलो बेटा! कैसे हो ? ” आवाज़ को सामान्य बनाते हुए संध्या ने पूछा ।
” ठीक हूँ माँ , कल से अचानक कॉलेज की छुट्टियाँ लग गई हैं , इसलिए कल सुबह की फ्लाइट से पहुँच रहा हूँ ।” उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही उधर से फोन काट दिया गया ।
अबकी संध्या ने आकाश की ओर नज़र डाली , फिर एक दीर्घ श्वांस छोड़ते हुए बैग उठाकर भीतर आ गई ।
— शशि बंसल, भोपाल