अनुकूल
इन अनंत मरुस्थल को देखो,
धूप में तपते रेतो को देखो,
सहनशीलता है कितनी इनमें ये तो समझो।
जरा कभी इनकी शीतलता को परखो।
तेज धूप में गर्म हो जाते हैं।
शीतलता में ये शीतल हो जाते हैं।
अनुकूल बनाते है अपने को ये कैसे।
शीतलता थी कहां छिपायी इन्होंने।
जब तक सूरज थे चमकते।
आग जैसे थे ये भी दमकते।
अब आई है चांदनी की बारी।
देखो इनकी शीतलता है न्यारी।
रामेश्वर मिश्र