“आल्हा छंद”
एक बात मैं कहूँ मानलो, थे राणा बीरों के बाप
भाला उनका उठा सके जो, वैसा कोई दिखा न ताप।।
चेतक था नाहर बलशाली, राणा का मन लेता भाँप
फेन कुचलता बढ़ता शेरा, बीरा डगर दिखे यदि साँप।।
पल में ओझल दुश्मन होते, मलते रह जाते थे हाथ
टॉप सुनाई दे कानों में, बैरी महिला होय अनाथ।।
घर कर दीपक लेकर भागे, ध्रुजे ड्योढ़ी करे अन्हार
बात मान लो मेरे स्वामी, राणा से मत राखहु रार।।
पलक झपकते नदी रौंदता, खुली आँख तो पग पहाड़
अश्व नहीं जस शिव कर नंदी, अमर देव है दिखता साँड़।।
छलिया कपटी मित्र बन गया, दगा दे गए पूत अनेक
माँ भारती का सुत निराला, लड़ता रहा युद्ध अतिरेक।।
बीरों के नायक थे राणा, उदय कुँवर थे महा प्रताप
आज के दिन जन्मा सूरमा, मुग़ल सल्तनत का अभिशाप।।
बता दिया था गद्दारों को, राणा ने अपनी पहचान
गौतम दिली दिदार लगाए, महाबीर सबका अभिमान।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी