गुब्बारेवाला
पंडित आज्ञाराम के बेटे और बहू अपने पांच वर्षीय पुत्र दीपू के साथ मेले में घुम रहे थे । बहू गिरिजा और बेटा अशोक करीने से सजी खिलौने की दुकानों में सजे खिलौने निहारते आगे बढ़ रहे थे । नन्हा दीपू हर दुकान पर खिलौने देखता और अपनी उंगली उठाकर उनसे खिलौने खरीद देने की जिद्द करता । लेकिन अशोक और गिरिजा उसे समझा बुझाकर आगे बढ़ जाते । एक जगह रंग बिरंगी कांच की चूड़ियों से सजी दुकान देखकर गिरिजा चूड़ियां देखने में मशगूल हो गयी । अशोक भी उसे चूड़ियां पसंद करने में मदद करने लगा । लगभग पांच मिनट बाद जब दोनों चूड़ियां खरीद चुके उनका ध्यान दीपू की तरफ गया । उनके पैरों तले जमीन खिसक गई थी । मेले की भीड़भाड़ के बीच नन्हा दीपू उन्हें कहीं नजर नहीं आ रहा था ।
पागलों की तरह दीपू को ढूंढ ढूंढ कर दोनों बेहाल हो चुके थे । अब रात गहरा गयी थी । मेले में भीड़भाड़ भी अब कम हो गयी थी । इक्का दुक्का दुकानें भी अब बंद होनी शुरू हो गयी थी । थके हारे अशोक और गिरिजा खिलौनों के दुकानों की कतार में एकदम आखिर की दुकान के सामने एक खाली जगह में बैठ गए ।
उसी खाली जगह में एक गरीब गुब्बारेवाला अपने परिवार सहित भोजन कर रहा था । उसके सामने ही तीन छोटे बच्चे भी उसीके साथ भोजन कर रहे थे । उन्हें अपने हाथों से भोजन कराते हुए वह गुब्बारेवाला एक बच्चे को समझाए जा रहा था ” न रोओ बेटा ! अल्लाह चाहेगा तो तुम्हें तुम्हारे मां बाप मिल जाएंगे । “
उसकी यह बात सुनते ही गिरिजा का ध्यान गुब्बारेवाले की तरफ गया और वह उन बच्चों की तरफ दौड़ पड़ी । नजदीक पहुंचते ही उसने देखा उन तीन बच्चों में से एक उसका दीपू था । अपने साथ बैठे दोनों बच्चों की तरह ही वह उनके साथ उनके ही बर्तन में भोजन कर रहा था ।
अशोक ने यह दृश्य देखते ही उस गुब्बारेवाले को पटक कर मारना शुरू कर दिया ” साले ! तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरे लड़के को अपना जूठा खिलाने की । जानता नहीं हम कौन हैं ? हमारा धर्म भ्रष्ट कर दिया । ” बेचारा गुब्बारेवाला दोनों हाथ जोड़ घिघिया रहा था ” मालिक ! माफ कर दो । बड़ी भूल हो गयी । मैं पहचान नहीं पाया । “
जबकि गिरिजा की कृतज्ञ आंखें दोनों नजरों में अश्रु की धार लिए उस गुब्बारेवाले को हृदय से आशीष दे रही थीं ।
वह एक माँ जो थी !