“गज़ल”
काफिया –आते, रदीफ़ – हैं लोग
परिंदों को दाना खिलाते हैं लोग
मुंडेर पर कागा बुलाते हैं लोग
घरौंदे काँव कचकच सजाते नहीं
नट नटी नौटंकी नचाते हैं लोग।।
जश्ने जरुरत में जंगल जुगाली
दिवाली में दीया जलाते हैं लोग।।
अपने दरों पर झालरें लगाकर
परदों पे परदा लगाते है लोग।।
निस्बत नशा सुर्ख नैना आभारी
दिखावे में बोतल हिलाते हैं लोग।।
दूरी कब होती खुले आशियाँ में
दिवार की दूरी निभाते हैं लोग।।
बहारों से गौतम गिला है सबको
गुलाब को काँटे दिखाते हैं लोग।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी