डर लगता है
डर लगता है तन्हाई में फिर से लौट न जाऊँ मैं ।
मुझे नहीं मालूम, जमाने का दस्तूर पुराना है।
घास फूस का घर,गर्मी है, आग का आना जाना है।
बकरे की माँ आखिर कब तक उसकी खैर मनाएगी।
बकरे को सालन बनना है, एक दिन कट ही जाना है।
तेरे सपनो की ज्वाला की समिधा न बन जाऊं मैं।
डर लगता है…………
कहो प्रियतमे तेरी खातिर, फूलों का एक हर चुनूँ।
तुम पर कोई गीत लिखूं, मैं शब्दों का श्रृंगार चुनूँ।
पर समक्ष आकर मेरे एक विषम परिस्थिति खड़ी हुई,
चुनूँ दर्द की सरिता या कि प्रेम का पारावार चुनूँ ?
तेरी माँग सजाऊँ,कैसे चाँद सितारें लाऊँ मैं ?
डर लगता है………………………….।
©डॉ दिवाकर दत्त त्रिपाठी