धर्म के ठेकेदार
लोकतंत्र मुँह है ताक रहा, देकर समानता का अधिकार
इनका बल है बस बोल रहा, ये जो हैं धर्म के ठेकेदार,
जाति-धर्म के नाम पर, समाज में लोगों से दुर्व्यवहार
कुप्रथा छुआछूत भी कर रही, निसदिन इसमें उद्धार,
परंम्पराओं के नाम पर भी होता, नित शोषण अत्याचार,
व्यर्थ कर्मकांडों से है जुडा, आम जनजीवन और समाज,
धर्म के नाम अक्सर होता है, वेश्यावृति का ये व्यापार
पंडे ईश बन औरत का, करते हैं शोषण और दुराचार,
पाखंड अँधविशवास धार्मिक लूट का,बस है बोलबाला
विवश जनता सब कुछ देख रही, ओढे मौन दुशाला,
आम जीवन प्रत्येक मन, इन कुप्रथाओं से ग्रसित हो रहा
समानता का अधिकार पाकर भी,उन्नति का पतन हो रहा,
मँदिर, मठ में अक्सर होती हैं, सुविधाओं की मारा-मार
यहाँ भी टकै जनता से ही खेंचते, ये धर्म के ठेकेदार ।
— लक्ष्मी थपलियाल