कविता : उम्र की सुराही से
उम्र की सुराही से
रिस रहा है
लम्हा लम्हा
बूँद बूँद
और
हमें मालूम तक नहीं पड़ता
…..
कितनी स्मृतियाँ
पुरानी किताब के
जर्द पन्ने की तरह
धूमिल पड़ गई
हमें मालूम तक नहीं पड़ता
…….
बिना मिले , बिना देखे
कितने अनमोल रिश्ते
औपचारिकता में
तब्दील हो जाते है
हमें मालूम तक नहीं पड़ता.
……
हमें मालूम तक नहीं पड़ता
कल कौन , कब, कहाँ
साथ छोड़ जाएगा
या
कोई
कब
कहाँ
नया
हमसफ़र
मिल जाएगा
…….जीवन ऐसा ही है
थोड़ा पानी के उपर
थोड़ा पानी के भीतर….
हमें मालूम तक नहीं पड़ता.
— गौतम कुमार सागर