लघुकथा- गवाह
रानू ने घर में घुसते ही तिरछी निगाहों से घुरते हुए पिता से कहा,” ऐसे क्या देख रहे हो ? ”
पिता कुछ नही बोले. चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगे. उनकी निगाहों में एक सवाल था. जिसे रानू ताड़ गई थी. बोली,” आज भी यही जानना चाहते हो ना कि मैं कहां गई थी ?”
”हूंह !” पिता ने गहरी श्वास बाहर छोड़ी. उनका यह उपेक्षित भाव रानू को असहनीय लगा,” आप लोगों की बातें क्यों सुनते हो ? सीधे-सीधे मुझे से पूछ लिया करो. कोई कुछ भी कहता हैं आप मान लेते हो. आज फिर किसी ने मुझे किसी के साथ देखा था ?”
” हां,” पिता ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा,” आज कहां गई थी ?”
” ओह ! तो ‘उस’ ने चुगली कर दी.” रानू बोली,” मैं जिसके साथ गई थी वह मेरा जूनियर क्लासमेट भैया है. उसके साथ में मेरी सहेली जिया भी थी. चाहे तो आप फोन लगाकर उससे पूछ सकते हो ?”
” मगर, उसके साथ मोटरसाइकल पर बैठ कर कहां जा रही थी ? जब कि तूझे मना किया है कि….”
” ओह पापा ! अब तो आपको शक करने की बीमारी लग गई है. जब मैं पहले अकेली जाती थी तब आप शक नहीं करते थे और अब जब सहेली के साथ जाती हूं तो शक करते हो. आप कहे तो शहर के कॉलेज जाकर पढ़ाई करना छोड़ दूं ?”
इस पर पिता को गत वर्ष एक रेड में पकड़ाई ‘उस’ गवाह जिया की याद ताजा हो गई. इसलिए उन्होंने तुनक कर कहा, ” पहले तू अकेली जाती थी, इसलिए शक नहीं होता था, जब से ‘उस’ गवाह के साथ जाने लगी है शक होने लगा है.”
यह सुन कर रानू चुप हो गई
— ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”