लघुकथा : दायित्त्व
सुबह से वह भागदौड़ करे जा रही थी। शादी के माहौल में अपने लिए एक पल भी आराम कहाँ था उसे। सारे काम निपटा वह थोड़ी देर कुर्सी पर बैठ गयी। किसी ने उसे चाय का कप पकड़ा दिया । पर उसे अब फिर भागना था। छुटकी को पार्लर से लाना भी तो था।
पार्लर में कुछ देर इंतज़ार करने के लिए कहा गया तो सामने लगे शीशे पर अपने चेहरे पर नज़र पड़ते ही वह अपने अतीत में डूब गई।
“ दीदी, आप कब करेगी शादी? मुझे तो लगता है आप मेरी भी शादी नही होने देगी। बस कुंडली जमाये बैठी रहेगी। “ छुटकी उस पर चिल्लाये जा रही थी।
“ क्या हुआ छुटकी ? “ वह सकपका सी गयी थी।
“संदीप , अगले महिने यू एस जा रहा है । अंतिम जवाब मांग रहा है।” कहते ही रोने लगी थी छुटकी ।
पापा के अचानक आये पैरालिसिस अटैक के बाद घर की सारी जिम्मेदारी जैसे उसके कंधे पर ही आ गयी थी। माँ तो छुटकी के जन्म के साथ ही चल बसी थी।
घर बाहर के काम , छुटकी को सारे प्यार , पापा की देखभाल में कब छुटकी भी शादी योग्य हो गयी, उसको पता ही न चला। अपने चेहरे पर आई झुर्रियां तो उसने कभी देखी ही नही थी। लोगो के कहने की भी कभी परवाह नहीं की उसने।
“दीदी, कैसी लग रही हूं मैं?” छुटकी दुल्हन बनी तैयार खड़ी थी।
“ किसी की नज़र न लगे तुझे!” छोटा सा काजल का टीका कान के पीछे लगाते उसकी आंखें भर आयीं।
— ऊषा भदौरिया