लघुकथा : संवेदना
रोज की तरह वह घिसटते घिसटते फिर उसी जगह सड़क के किनारे पर बैठ गया।
लोग आते जाते रहे । उसके कटे पैरों से रिसते मवाद देख, कुछ उस पर तरस खाते, कुछ उसे घृणा से देख मुँह फेर लेते। भीड़ में कुछ शायद आंखों वाले अंधे भी थे और कुछ दोनों कानों के साथ बहरे भी ।
भीख में मिले कुल दस बीस रुपये उसके एक समय के खाने की जुगाड़ तो कर ही देते । देश की जनसंख्या बढ़ने के साथ, जैसे, दिन-प्रतिदिन उसके कटोरे में पैसों की कमी होती जा रही है।
आज मिले आठ रुपये से खाने के लिए खरीदी रोटी ले, जैसे ही खाने को बैठा, सामने से देखती मासूम की दो ललचाती नज़रे उसे भेद गयी।
अब भूखा वर्तमान, भविष्य का पेट भर, सुकून की नींद ले रहा था।
— ऊषा भदौरिया