शुक्रिया
शुक्रिया
काँटों भरे पर्वत को
देख रही उबड़ खाबड़
कटीली झाड़ियों भरी राहें
धूप के थपेड़े लू की वेदना
सूखे कंठ और पथराई आँखें
बैचेन हो जाती
जब पानी न बरसता
माटी की खुशबू को तरसता इंसान
उन खुशबुओं की तरह
जो बहारों के मौसम में दे जाते फूल
ताजी खुशबुओं का उपहार
पहाड़ी पर कब उगेगी हरी घास
सूखी धरती पर पहली बारिश की बूंदे
जो बदल देती धरती का आवरण
ला देती इंसानी दिमाग में तरोताजापन
जो होता प्रकृति की और से निःशुल्क उपहार
पशु -पक्षी,पेड़ पौधे और इंसान एकाकार होकर
करने लगते ऊपर वाले का गुणगान
ऊपर वाले तेरा लख -लख शुक्रिया
— संजय वर्मा ‘दृष्टी’
मनावर (धार )