कविता : कशमकश
हम इंसान हैं !
तो क्यों ?
जानवर सरीखे हो जाते हैं !
अपने विवेक से दूर होकर,
भूल इंसानियत जाते हैं ।
कैसी कशमकश है की ,
मानवता की बलि चढ़ा !
विस्मृत कर सारे मूल्य ,
लौट रहें फिर प्रागैतिहासिक काल में !
हुए थे विकसित बन्दर से ,
आज बन्दर है हमसे अधिक सभ्य !
सिर्फ स्वाद और दिखावे हेतु ,
नहीं लेता किसी के प्राण !
प्रकृति की सैकड़ों नियामतों के ,
उपभोक्ता हम ,तार तार करते ,
प्रकृति का ही सन्तुलन !
ये कैसी कशमकश है की ,
जन सम्वेदना तो है लुप्त!
जानवरीय सम्वेदना के ,
आयाम हैं प्रचुर !
— डॉ संगीता गाँधी