कविता

कविता : कशमकश

हम इंसान हैं !
तो क्यों ?
जानवर सरीखे हो जाते हैं !
अपने विवेक से दूर होकर,
भूल इंसानियत जाते हैं ।
कैसी कशमकश है की ,
मानवता की बलि चढ़ा !
विस्मृत कर सारे मूल्य ,
लौट रहें फिर प्रागैतिहासिक काल में !
हुए थे विकसित बन्दर से ,
आज बन्दर है हमसे अधिक सभ्य !
सिर्फ स्वाद और दिखावे हेतु ,
नहीं लेता किसी के प्राण !
प्रकृति की सैकड़ों नियामतों के ,
उपभोक्ता हम ,तार तार करते ,
प्रकृति का ही सन्तुलन !
ये कैसी कशमकश है की ,
जन सम्वेदना तो है लुप्त!
जानवरीय सम्वेदना के ,
आयाम हैं प्रचुर !

डॉ संगीता गाँधी

डॉ. संगीता गाँधी

शिक्षिका व लेखिका । प्रयास ,लोकजंग ,वर्तमान अंकुर ,समाज्ञा ,ट्रू टाइम्स ,झांब ,वुमेन एक्सप्रेस ,अनुभव आदि पत्र पत्रिकाओं व हिंदी निकुंज ,प्रतिलिपि, साहित्य पिडिया ,कथानकन , लिटरेचर पॉइंट ,स्टोरी मिरर आदि वेबसाइट पर रचनाएँ प्रकाशित । Wz 76 फर्स्ट फ्लोर ,लेन 4 ,शिव नगर ,नई दिल्ली 58 ईमेल [email protected]