लघुकथा : संघर्ष से मिली प्रेरणा
माया तेज कदमों से चलकर रास्ता तय कर रही थी, मन में विचारों की उथल-पुथल का आना जाना जारी था। वह अपने तीन बच्चों की पढाई के खर्च को लेकर काफी समय से बहुत चिंतित थी। उसके पति जीवन को दारू की बहुत बुरी लत थी वह दारू के पैसों के लिए माया से मारपीट करने में भी गुरेज नहीं करता था। ना ही वह कुछ कमाता धमाता था। सारे घर की जिम्मेदारी माया पर ही थी। वह यही सोच रही थी। तीनों बच्चों की पढाई का खर्च वह कैसे वहन कर पाएगी। बेटों का उसने सरकारी स्कूल में दाखिला बहुत पहले ही करवा दिया था। किंतु अब बेटी की पढाई के खर्च को लेकर परेशान थी। यह चिंता उसे रात-दिन खाये जा रही थी। थोडी दूर पर इस्त्री वाले से कपडे लेकर वह घर की ओर तेज कदमों से चल दी।
घर के दरवाजे पर पहुंचकर डोर बैल बजाई। मालकिन ने दरवाजा खोलते ही गुस्से के भाव से उसका स्वागत किया। मालकिन इतनी देर क्यों कर दी…? माया, “मालकिन घर के काम और फिर थोडा दूसरे घर में काम ज्यादा होने पर समय लग गया। मालकिन, “गुस्से में, इतने घर पकडती ही क्यों हो फिर??… माया मन ही मन बुदबुदाने लगी। आप क्या जानो मेरी जिम्मेदारियों की लंम्बी चौडी लिस्ट को। माया की नजर पडी एक तरफ खाने की मेज पर सभी नाश्ता कर रहे थे। वह कपडे मालकिन को थमा किचन की ओर चल दी। रात के र्बतनों से सिंक भरा पडा था। सो जुट गई उन्हें साफ करने में। बर्तन निपटा वह सफाई को रसोई से जैसे ही बाहर जाने लगी। तभी नाशता खत्म कर सभी ने पुन: बर्तनों का अँबार लगा दिया। जुट गई फिर से बर्तनों की सफाई में। बर्तन निपटा वह कमरों की झाड-पोंछ में लग गई। झाडू- पोंछा निपटाकर उसने बाथरूम का रूख किया। कपडों का ऊँचा ढेर देख पहले ही उसकी हिम्मत जवाब दे रही थी,पर मरता क्या ना करता । सो…….जुट गई कपडों की धुलाई में, लगभग एक घंटा कपडों पर लगी रही.. कपडे धुलने के बाद बाल्टी उठा वह उन्हें डालने छत की ओर चल दी।
कपडे डालकर आई ही थी। बैठक की ओर नजर दौडाई तो देखा। मालकिन सोफे पर आराम से पसरी हुई थी। देखते ही तपाक बोल पडी। माया, खिडकी दरवाजों के शीशों की सफाई कबसे नहीं हुई….??? देखो ” दरवाजे कितने गंदे और शीशे धूल से कितने धूँधले पडे हैं”.. माया, “मालकिन मैं कल सारा साफ कर दूंगी, आज मुझे कुछ जरूरी काम है तो जाना है। मालकिन गुस्से में बोली,” नहीं आज मेरे घर में किट्टी है। मेरी सहेलियां आयेंगी देखेंगी, तो क्या कहेंगी आज ही निपटाओ इन्हें। माया मन ममोस कर रह गई ।अपना सा मुँह ले कपडा और कौलीन उठा जुट गई शीशों को चमकाने में, शीशों को साफ करते हुये उसमें अपनी छवि को अनवरत देखे जा रही थी……वह अपने चेहरे की झुर्रियों और थकान को शीशे में साफ पढ पा रही थी।
सारी सफाई निपटा वह मालकिन से विदा ले थकी मांदी घर की ओर तेज-तेज कदमों से बढने लगी। सोच रही थी क्या नियति है, अभावमयी जीवन, जरूरतें इंसान की मजबूरियां उससे सब करवाती हैं। सोचने लगी, कि कल उसकी बेटी को भी यही सब काम करना पडेगा…मन ही मन बोली ….नहीं,” मैं जो बन गई सो बन गई, उसे इस काम में नहीं झोकूंगी। अचानक उसके चेहरे में संतोष की झलक उभर आई। शायद उसे अपनी चिंता से मुक्ति मिल गई थी। सोच रही थी। उसकी पढाई के लिये और ज्यादा मेहनत करूंगी उसे हर हाल में पढाऊँगी ।यह सब मनन करते हुये ना जाने कब वह घर के दरवाजे पर खडी थी। दरवाजा खटखटाया। बेटी ने दरवाजा खोला। बिटिया को उत्साह से भरे स्वर में बोली । गुडिया अब तुम जल्दी ही स्कूल जाओगी। नन्हीं बिटिया के चेहरे में मुस्कान थी। और माया बेटी की मुस्कान देख खुद की कमजोरी ,और चिंता को काफी पीछे छोड खुद को अब और ज्यादा ताकतवर महसूस कर रही थी.।
— लक्ष्मी थपलियाल
देहरादून,उत्तराखंड