चाटुकारों चापलूसों की बहुत चलती है
चाटुकारों चापलूसों की बहुत चलती है
यही बात तो दफ्तर की मुझे खलती है
इन्हे आता है बस मक्खन लगाना
इसमे इन निकम्मों की क्या गलती है
बेईमानी की आंच का असर देखो
ईमानदारी की बर्फ रोज पिघलती है
मथता कोई और मलाई खाये कोई
दाल मेहनती की कहां गलती है
इतराते हैं अपनी झूठी सफलता पर
ये रेत है जो हाथ से फिसलती है
संभल जाओ समय पर ऐ नासमझों
काल की चक्की बहुत मसलती है
अपनी ही लकीर को बस बढा़ते चलो
अंधियारी रात रोज सुबह ढ़लती है
स्वाभिमान अपना जिंदा रखो सदा
किस्मत है जल्द करवट बदलती है
अर्जुन सिंह नेगी